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वक्रोक्तिजीवितम्
एतयोर्वैचित्र्यं पूर्वमेव व्याख्यातम् ।
इन दोनों उदाहरणों की विचित्रता का विश्लेषण पहले ही ( उदा० सं० १५८ एवं १।६८ की व्याख्या करते समय ) कर चुके हैं ।
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श्रयमपरः क्रियावैचित्र्यवक्रतायाः प्रकारः -- - कर्त्रन्तरविचित्रता । श्रन्यः कर्ता कर्त्रन्तरं तस्माद्विचित्रता वैचित्र्यम् । प्रस्तुतत्वात् सजातीयत्वाच्च कर्तुरेव । एतदेव च तस्य वैचित्र्यं यत् क्रियामेव कर्त्रन्तरापेक्षया विचित्रस्वरूपां संपादयति । यथा
( २ ) यह 'दूसरे कर्त्ता के कारण होनेवाली विचित्रता' क्रियावैचित्र्यवक्रता का दूसरा भेद है । कर्त्रन्तर का अर्थ है दूसरा कर्ता उससे जो विचित्रता अर्थात् विलक्षणता होती है । ( यह विलक्षणता ) वर्ण्यमान एवं समानधर्मी होने के करण कर्ता की ही होती है । उस ( कर्ता ) की यही विलक्षणता है कि वह दूसरे कर्ता की अपेक्षा विचित्र स्वरूप वाली क्रिया को et froपन्न करता है । जैसे -
नैकत्र शक्तिविरतिः क्वचिदस्ति सर्वे
भावाः स्वभावपरिनिष्ठिततारतम्याः । श्राकल्पमौर्वदहनेन निपीयमानमम्भोधिमेकचुलुकेन
कहीं एक ही स्थान पर सामर्थ्य की निवृत्ति नहीं होती है । सभी वस्तुयें अपने स्वाभाविक न्यूनाधिक्य से युक्त होती हैं । कल्प के प्रारम्भ से ही वाग्नि के द्वारा अच्छी तरह से पिये जाते हुए सागर को अगस्त्य (ऋषि) ने एक चुल्लू से ही पी डाला था ।। ८६ ।।
पपावगस्त्यः ॥ ८६ ॥
श्रकचुलुकेनाम्भोधिपानं सतताध्यवसायाभ्यासकाष्ठाधिरूढि प्रौढत्वाद्वाडवाग्नेः किमपि क्रियावैचित्र्यमुद्वहत् कामपि वक्रतामुन्मीलयति ।
यहाँ पर निरन्तर प्रयास के अभ्यास की चरमावधि को पहुँचे होने से प्रौढ़ हुए बडवानल की अपेक्षा एक ही चुल्लू से सागर का पान कर जाना किसी अपूर्व क्रिया की विलक्षणता को धारण करता हुआ किसी लोकोत्तर बाँकपन को व्यक्त करता है ।
यथा वा
प्रपन्नातिच्छिदो नखाः ॥ ८७ ॥