________________
द्वितीयोन्मेषः
२४७ भी ( अर्थात् झुकने का नाम लेने पर भी) ये इतने भुवन आकाश में अत्यधिक कम्प के साथ बेसिलसिला लुढ़कने लग जाते हैं । ८२ ॥
प्रत्रोधुरताधारणलक्षणक्रियाकर्तुः फणीश्वरमस्तकस्य प्रस्तुतीचित्यमाहात्म्यादन्तर्भावं यथा भजते तथा नान्या काचिदिति क्रियावैचित्र्यवक्रतामावहति । यथा वा
यहाँ पर खड़ा रखने के स्वरूप वाला व्यापार कर्ता रूप शेषनाग के फण का, वर्ण्यमान के औचित्य की महिमा से जिस प्रकार अन्तरङ्ग बन जाता है वैसे अन्य कोई व्यापार नहीं इसलिए यहां क्रियावैचित्र्यवक्रता है । अथवा जैसे
किं शोभिताहमनयेति पिनाकपाणः।
पृष्ठस्य पातु परिचुम्बनमुत्तरं वः ॥ ८३ ॥ उदाहरण संख्या १८१ पर उद्धृत 'क्रीडारसेन-' इत्यादि पद का यह उत्तरार्ध । ( कि पार्वती के द्वारा अपने शिर पर चन्द्रलेखा लगाकर ) 'क्या मैं इसके श्वारा अच्छी लग रही हूँ' इस प्रकर पूछे गये चन्द्रमौलि ( भगवान शङ्कर ) का उत्तर रूप परिचुम्बन आप लोगों की रक्षा करे ।। ८३ ।।
अत्र चुम्बनव्यतिरेकेण भगवता तथाविघलोकोत्तरं गौरीशोभातिशयाभिधानं न केनचित् क्रियान्तरेण कतुपार्यत इति क्रियावैचित्र्यनिबन्धनं वक्रभावमावहति । यथा च___ यहाँ पर पार्वती के उस प्रकार की अलौकिक सुन्दरता के उत्कर्ष का चुम्बन से भिन्न किसी दूसरी क्रिया के द्वारा प्रतिपादन करना सम्भव नहीं था इसीलिये यह ( वाक्य ) उस वक्रता का धारण करता है जिसका कारण (चुम्बन रूप ) क्रिया की विचित्रता है ( यही क्रिया अत्यन्त अन्तरङ्गता को प्राप्त हो गई है । ) तथा जैसे-(दूसरा उदाहरण )
रहस्य तइप्रणप्रण पव्वइपरिचूम्बिनं जमइ ॥४॥
( रुद्रस्य तृतीयनयनं पार्वतीपरिचुम्बितं जयति । ) पार्वती के द्वारा चुम्बन किया गया भगवान शङ्कर का तृतीय नेत्र सर्वोत्कृष्ट रूप में विद्यमान है।। ८४ ॥ यथा वा
सिढिलिनचामामो जमइ मनरखनो ॥५॥
(शिथिलितचापो जयति मकरध्वजः ।) अथवा जैसेधनुष को ढीला किए हुए कामदेव सर्वोत्कर्ष सम्पन्न हैं ।। ८५