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द्वितीयोन्मेषः
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इस प्रकार की अवस्थाओं से युक्त सोचता हूँ ( जैसा कि अभी मैंने तुमसे बताया है, क्योंकि तुम यह निश्चित समझ लो कि ) मुझे अपना सौन्दर्याभिमान ( ऐसी दशा की कल्पना करने के लिये ) वाचाट नहीं बना रहा है, ( अपितु उसका मेरे प्रति ऐसा अगाध स्नेह है जिससे कि ऐसी दशा उसकी हो गई होगी । और अधिक क्या कहूँ ) भइया, मैंने जो कुछ भी कहा है वह शीघ्र ही तुम अपनी आँखों से देखोगे ।। ६९ ।।
यथा च---
यम्रा वा
दाहोऽम्भ: प्रसूतिपचः इति ॥ ७० ॥
पायं पायं कलाचीकृतकबलदलम् इति ॥ ७१ ॥
और जैसे—
दाहोऽम्भः प्रसृतिम्पचः ।। ७० ।। यह १।४८ पर पूर्वोदाहृत पद्य का अंश अथवा जैसे— पायं पायं कलाचीकृतकदलदलम् ॥ ७१ ॥ यह २ १० पर उद्धृत श्लोक का अंश ।
अत्र सुभगंमन्यभावप्रभुतिशब्देषु संनिवेशच्छायाविधायिनीं वाचकवक्रतां प्रत्ययाः पुष्णन्ति ।
यहाँ ' सुभगम्मन्यभाव' इत्यादि पदों में मुमादि के विलास के कारण रमणीय प्रत्यय विन्यास की शोभा को उत्पन्न करने वाली शब्दवक्रता को पुष्ट करते हैं ।
मुमादिपरिस्पन्दसुन्दराः
एवं प्रसंगसमुचितां पदमध्यवर्तिप्रत्ययवत्रतां विचार्य समनन्तरसंभविनीं वृत्तिवक्रतां विचारयति
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इस प्रकार प्रसङ्ग के अनुरूप पदों की मध्यवर्तिनी प्रत्ययवक्रता का विवेचन कर तदनन्तर अवसरप्राप्त वृत्तिवक्रता को प्रस्तुत करते हैं—
अव्ययीभावमुख्यानां वृत्तीनां रमणीयता यत्रोल्लसति सा या वृत्तिवैचित्र्यवक्रता ॥ १६ ॥
जहाँ पर अव्ययीभाव (समास ) प्रधान वृत्तियों की सुन्दरता परिस्फुरित होती है उसे वृत्ति की विचित्रता से उत्पन्न ( वृत्तिवैचित्र्यवक्रता ) जानना चाहिए ।। १९ ।।
सा वृत्तिर्वधिव्यवक्ता ज्ञेया बोध्या । बृत्तीनां वैचित्र्यं विचित्र भावः सजातीयापेक्षया सौकुमार्योत्कर्षस्तेन वक्रता वकभावविच्छित्तिः