________________
२३६
वक्रोक्तिजीवितम् कोदशी -रमणीयता यत्रोल्लसति। रामगीयकं यस्यामुद्भिद्यते। कस्य-वृत्तीनाम् । कासाम्--अव्ययीभावमुख्यानाम् । अव्ययोभावः समासः मुख्यः प्रधानभूतो यासां तास्तथोक्तास्तासां समासतद्धितसुब्धातुवृत्तीनां वैयाकरणप्रसिद्वानाम् । तदयमत्रार्थः-यत्र स्वपरिस्पन्दसौन्दर्यमेतासां समुचितभित्तिभागोपनिबन्धादभिव्यक्तिमासादयति । यथा
उसे वृत्तिवैचित्र्यवक्रता जानना अथवा समझना चाहिए। वृत्तियों का वैचित्र्य अर्थात् विचित्रता, समानधर्मियों की अपेक्षा सुकुमारता का आधिक्य, उसके कारण वक्रता अर्थात् जो बांकपन की शोभा होती है ( उसे वृत्तिवैत्रित्र्यवक्रता कहते हैं ) । कैसे ( वक्रता )-जिसमें रमणीयता उल्लसित होती है, अर्थात् जिसमें सौन्दर्य झलकता रहता है । किसका (सौन्दर्य )वृत्तियों का। किन वृत्तियो का-अव्ययीभावप्रधान ( वृत्तियों ) का। अर्थात् अव्ययीभाव समास जिनमें मुख्य अर्थात् प्रधानभूत है उन वैयाकरणों में प्रख्यात अव्ययीभाव प्रधान-समास-तद्धित एवं सुब्धातु वृत्तियों का ( सौन्दर्य जहाँ प्रस्फुटित रहता है)। इसका आशय यह हुआ कि जहाँ इन (समासतद्धित आदि वृत्तियों) की अपनी सहज रमणीयता एक उचित भूमिका पर उपन्यस्त किए जाने के कारण स्फुटित होती है ( वहाँ वृतिवैचियवक्रता होती है । ) जैसे
अभिव्यक्ति तावद् बहिरलभमानः कथमपि स्फुरन्नन्तः स्वात्मन्यधिकतरसंमूच्छितभरः। मनोज्ञामुदृत्तां . परपरिमलस्पन्दसुभगा
महा घत्ते शोभामधिमवु लतानां नवरसः॥७२॥ आश्चर्य है कि मधुमास में किसी भी प्रकार प्रकाशित होने में असमर्थ, अत्यधिक सम्मोह के भार से युक्त अपने अन्दर ही स्फुरित होता हुआ लताओं का नवरस, प्रकृष्ट सुगन्धि के स्फुरित होने से रमणीप, हृदयावर्जक एवं अत्यधिक सम्पन्न श्री को धारण करता है ।। ७२ ॥
प्रत्र 'अधिम'-शब्देविभक्त्यर्थविहितः समासः समयाभिवायपि विषयसप्तमीप्रतीतिमुत्पादयन् 'नवरस'-शब्दस्य श्लेषच्छायास्फुरण. वैचित्र्यमुन्मीलयति । एतवृत्तिविरहिते विन्यासान्तरे वस्तुप्रतोतो सत्यामपि न तादृक्तद्विदाह्लादकारित्वम् । उदृत्तपरिमल-स्पन्द-सुभगशब्दानामुपचारवक्रत्वं परिस्फुरद्विभाव्यते । यया च