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वितीयोन्मेषः
२३॥ कथन कि)-(प्रियतमा के ) वे अक्षर (आज भी) हृदय में कुछ ( अपूर्व) ध्वनि कर कर रहे हैं । ६२ ।।
इसकी व्याख्या पहले ही ( १५१) श्लोक की व्याख्या रूप में की जा चुकी है।
(५) इदमपि प्रकारान्तरं संभवति यत्र परानुभवसंवेद्यस्य वस्तुनो वक्तुरगोचरतां प्रतिपादयितुं संवृतिः क्रियते । यथा
मन्मथः किमपि येन निदध्यौ ॥६३ ॥ (५) (इस संवृतिवक्रता का) यह एक अन्य भी भेद सम्भव हो सकता है जहाँ दूसरे के द्वारा अनुभवगम्य बात की वक्ता के द्वारा अगोचरता का प्रतिपादन करने के लिये ( उस बात का सर्वनामादि के द्वारा) संवरण. किया जाता है । जैसे
जिससे कि कामदेव कुछ (अनिर्वचनीय बात का ) ध्यान करने लगा ॥ ६३ ॥
प्रत्र त्रिभुवनप्रथितप्रतापमहिमा तथाविषशक्तिव्याघातविषण्णचेताः कामः किमपि स्वानुभवसमुचितमचिन्तयदिति ।
यहाँ तीनों लोकों में विख्यात पराक्रम की प्रभुता वाले कामदेव ने उस प्रकार (भीष्म के द्वारा आजीवन ब्रह्मचर्यव्रतपालन की प्रतिज्ञा को सुनकर अपनी) शक्ति की रुकावट से व्याकुलहृदय होकर कुछ अपने अनुभव के अनुरूप सोचने लगा। ( इस प्रकार दूसरे कामदेव के अनुभवगम्य पदार्थ को वक्ता ने अपनी वाणी द्वारा व्यक्त करने में असमर्थ होकर उसका 'किमपि' सर्वनाम के द्वारा संवरण कर दिया है)।
(६) इदमपरं प्रकारान्तरमत्र विद्यते-यत्र स्वभावेन कविविवक्षया - वा केनचिदौपहल्येन युक्तं वस्तु महापातकमिव कीर्तनीयतां नाहतीति समर्पयितुं संवियते । यथा
(६) ( संवृतिवक्रता का ) यह अन्य भेद है-जहाँ स्वभाव के कारण अथवा कवि के कथनाभिलाष के कारण किसी दोष से युक्त वस्तु महापातक के समान कथन करने योग्य नहीं है यह प्रतिपादित करने के लिए ( उस वस्तु को सर्वनामादि के द्वारा ) आच्छादित किया जाता है । जैसेदुर्वचंतपय मास्म भूमबरवग्यतो महकरिष्यवोजसा । नैनमाशु अविवाहिनीपतिः प्रसस्त शितेन पत्रिणा ॥६॥