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वक्रोक्तिजीवितम् हे कृष्ण (गला) रंधा होने के कारण गद्गद वाणी वाली विशाखा ने. उस प्रकार से विलाप किया, जिससे ( ऐसा लगता था ) कि सैकड़ों जन्मों में भी कोई किसी का प्रियतम न होवे ।। ६० ॥
भत्र पूर्वाधं संवृतं वस्तु रोदनलक्षणं तदतिशयाभिधायिना वाक्यान्तरेण कामपि तद्विवाह्लावकारितां नीतम् ।
यहाँ पर पूर्वाद्ध में ( तथा सर्वनाम के द्वारा) छिपाई गई रोदन रूप वस्तु उसके अतिशय का प्रतिपादन करने वाले दूसरे वाक्य के द्वारा किसी अनिर्वचनीय सहृदयाह्लादकारिता को प्राप्त करा दी गई है।
(३) इदमपरमत्र प्रकारान्तरं यत्र सातिशयसुकुमारं वस्तु कार्यातिशयाभिधानं विना संवृतिमात्ररमणीयतया कामपि काष्ठामघिरोप्यते । यथा
(३) यह ( संवृतिवक्रता ) का ( तीसरा) अन्य भेद है जहाँ अत्यधिक कोमल पदार्थ को ( उसके ) कार्य के उत्कर्ष का प्रतिपादन किए विमा ही केवल गोपनीयताजन्य सौन्दर्य से ही किसी अपूर्व पर्यवसान को प्राप्त कराया जाता है । जैसेदर्पणे च परिभोगशिनी पृष्ठतः प्रणयिनो निषेदुषः । वीक्ष्य बिम्बमनुबिम्बमात्मनः कानि कानि न चकार लज्जयां ॥६१॥
आइने में सम्भोग (जन्य नखदन्तक्षतादि. ) को देखने वाली ( पार्वति ) ने अपने पीछे स्थित प्रेमी ( भगवान शङ्कर ) की परछाही को अपनी परछाहीं के पीछे देख कर लज्जा से क्या क्या नहीं कर डाला ॥ ६० ॥
(४) अयमपरः प्रकारो यत्र स्वानुभवसंवेदनीयं वस्तु वचसा वक्तुमविषय इति स्यापयितुं संवियते । यथा
तान्यक्षराणि हृदये किमपि ध्वनन्ति ॥ ६२॥ इति पूर्वमेव व्याख्यातम्।
(४) ( इसी संवृतिवक्रता का ) यह दूसरा भेद है जहां केवल अपने द्वारा अनुभवगम्य बात की वाणी के द्वारा अनिर्वचनीयता प्रतिपादित करने के लिए ( उस बात को सर्वनामादि के द्वारा) आच्छादित किया जाता है। जैसे
( उदाहरण संख्या ११५१ पर पूर्वोदाहृत 'निद्रानिमीलतदृशो'-इत्यादि क्लोक के द्वारा नायक का अपनी प्रियतमा के अक्षरों का स्मरण कर यह