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वक्रोक्तिजीवितम्
( किरातार्जुनीय महाकाव्य में किरात वेषधारी भगवान शङ्कर का एक अनुचर सैनिक अर्जुन से कहता है कि ) - यह ( हमारे ) सेनापति ने (अपने ) पैने तीर से इस वराह ) को शीघ्र ही न मार डालते तो यह जङ्गली पशु ( अपने भयङ्कर ) बल से जो कुछ करता वह कहने योग्य नहीं और ( ईश्वर करें कि आपके लिये ( कभी ) न होवे ॥ ६४॥
यथा वा
निवार्थतामालि किमप्ययं वटुः पुनविवक्षुः स्फुरितोत्तराधरः । न केवलं यो महतोऽपभाषते श्रृणोति तस्मादपि यः स पापभाक् ॥ ६५॥
अथवा जैसे—
( कुमारसम्भव में कपटवटुवेषधारी भगवान् शङ्कर द्वारा पार्वती की परीक्षा लेने के लिए शङ्कर की निन्दा करते समय पार्वती को अपनी सखी से यह कथन कि ) - हे सखि ! इस वाचाट को रोको ( क्योंकि ) स्फुरित होते हुए होठों वाला यह फिर से कुछ कहने की इच्छा कर रहा है ( क्योंकि ) जो महापुरुषों की निन्दा करता है केवल वह ही नहीं ( अपितु ) जो उससे ( उस निन्दा को ) सुनता है वह पाप का भाजन बनता है ।। ६५ ।
श्रत्रार्जुनमारगं भगवदपभाषणं च न कीर्तनीयतामर्हतीति संवरणेन रमणीयतां नीतम् । कविविवक्षयोपहतं यथा
सोऽयं दम्भघृतव्रतः प्रियतमे कर्तुं किमप्युद्यतः ॥ ६६ ॥
इति प्रथममेव व्याख्यातम् ।
यहाँ ( पहले श्लोक में ) अर्जुन का वध एवं ( दूसरे श्लोक में ) भगवान् शङ्कर की निन्दा कहने के योग्य नहीं है अतः संवरण के द्वारा उसे सुन्दर बना दिया गया है । कवि के कथनाभिलाष से उपहत । जैसे
( तापसवत्सराज नाटक में वत्सराज उदयन पद्मावती के साथ विवाह करते समय अपनी महारानी प्रियतमा वासवदत्ता की याद करके कहते हैं कि - हे प्रियतमे ! आज धूर्तता के कारण ( एकपत्नी ) व्रत को धारण करने वाला वह यह ( उदयन ) कुछ (अनुचित कार्य ) करने के लिए तत्पर हो गया है ।। ६६ ॥
इसकी व्याख्या ( १।५० के व्याख्यारूप में ) पहले ही की जा चुकी है ।
एवं संवृतिवक्रतां विचार्य प्रत्ययवक्रतायाः कोऽपि प्रकार: पदमध्यान्तर्भूतत्वादिहैव समुचितावस रस्तस्मासद्विचारमाचरति -