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हितीपोन्मेषः
२२७ स्वमहिम्ना विधीयन्ते येन लोकोत्तरश्रियः ।
रसस्वभावालंकारास्तद्विधेयं विशेषणम् ॥ ५७॥ ( इति ) अन्तरश्लोकः ॥
जो अपने माहात्म्य से रस, (वस्तु) स्वभाव और अलङ्कार को अलौकिक सौन्दर्य से युक्त बना दे, ( काव्य में महाकवियों द्वारा ) वैसे ही विशेषण का प्रयोग करना चाहिए ।। ५७ ।।
यह अन्तरश्लोक है।
एवं विशेषणवक्रतां विचार्य क्रमसमर्पितावसरां संवृतिवक्रतां विचारयति
यत्र संवियते वस्तु वैचित्र्यस्य विवक्षया । सर्वनामादिभिः कश्चित् सोक्ता संवृतिवकता ॥ १६ ॥
इस प्रकार विशेषणवक्रता का विवेचन प्रस्तुत कर अब क्रमानुकूल अवसरप्राप्त 'संवृतिवक्रता' का विवेचन प्रस्तुत करते हैं
जहाँ विचित्रता का प्रतिपादन करने की इच्छा से किन्हीं ( अपूर्वता के प्रतिपादक ) सर्वनाम आदि के द्वारा पदार्थ को छिपाया जाता है उसे संवृतिवक्रता कहते हैं ( क्योंकि उसमें वस्तु के स्वरूप की संवृति अर्थात् छिपाने की प्रधानता से ही चमत्कार आता है, अतः उमे संवृति वक्रता कहत हैं । ) ॥ १७ ॥ ___सोक्ता संवृतिवक्रता-या किलविधा सा संवृतिवक्रतेत्युक्ता कथिता। संवत्या वक्रता संवृतिप्रधाना वेति समासः। यत्र यस्यां वस्तु पदार्थलक्षणं संवियते समाच्छाद्यते। केन हेतुना-वैचित्र्यस्य विवक्षया विचित्रभावस्याभिधानेच्छया । यया पदार्थों विचित्रभावं समासादयतीत्यर्थः । केन संवियते-सर्वनामादिभिः कश्चित् । सर्वस्य नाम सर्वनाम तदादिर्येषां ते तथोक्तास्तैः कश्चिदपूर्वैर्वाचकरित्यर्थः।
उसे संवृतिवक्रता प्रधान कहा जाता है। जो इस प्रकार की होती है उसे संवृतिवक्रता कहा जाता है। संवरण के कारण जो वक्रता होती है अथवा संवरण जिसमें प्रधान होता है ( उसे संवृति वक्रता कहते हैं ) इस प्रकार दोनों तरह का समास यहाँ हो सकता है । जहाँ अर्थात् जिस वक्रता में वस्तु अर्थात् पदार्थ के स्वरूप को संवृत किया जाता है अर्थात् छिपाया जाता है। किस हेतु से ( वस्तु का संवरण किया जाता है ) ?- वैविश्य की