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कक्रोक्तिजीवितम् यथा वा
शुचिशीतलचन्द्रिकाप्लुताश्चिरनिःशब्दमनोहरा दिशः। प्रशमस्य मनोभवस्य वा हृदि तस्याप्यय हेतुतां ययुः ॥ ५३ ॥ या जैसे
धबल शीतल चांदनी से आप्लावित और काफी देर से गुमसुम और मनोहारी दिशायें उसके भी हृदय में या तो वैराग्य या कामभावना को जगाने का कारण बनीं ॥ ५३ ॥ क्रियाविशेषणवक्रत्वं यथा
सस्मार वारणपतिविनिमीलिताक्षः
स्वेच्छाविहारवनवासमहोत्सवानाम् ॥ ५४॥ [ इस प्रकार कारकविशेषण वक्रता के तीन उदाहरण प्रस्तुत कर कुन्तक क्रियाविशेषणवक्रता का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं-]
क्रियाविशेषणवक्रता ( का उदाहरण ) जैसे
करिराज जंगल में रहने के समय के स्वेच्छापूर्वक किए गए विहार के महोत्सवों को आँख मूंद कर याद करने लगा ॥ ५४॥
अत्र सर्वत्रैव स्वभावसौन्दर्यसमुल्लासकत्वं विशेषणानाम् । प्रलं. कारच्छायातिपरिपोषकत्वं विशेषणस्य यथा
शशिनः शोभातिरस्कारिणा ॥ ५५॥ एतदेव विशेषणवक्रत्वं नाम प्रस्तुतौचित्यानुसारि सकलसत्काव्यजीवितत्वेन लक्ष्यते, यस्मादनेनैव रसः परां परिपाषपदवीमवतार्यते। यथा
करान्तरालीन इति ॥५६ ॥ यहाँ सभी उदाहरणों में विशेषण सहज रमणीयता को व्यक्त करते हैं । विशेषण की अलङ्कारों की शोभा के उत्कर्ष की परिपुष्टि जैसे
( उदाहरण संख्या २१४४ पर पूर्वोवृत-शशिनः शोभातिरस्कारिणा ।। ५५ ॥
यह विशेषण वर्ण्यमान पदार्थ के औचित्य के अनुरूप होने पर यही विशेषणवक्रता समस्त श्रेष्ठ काव्यों की प्राणभूता प्रतीत होती है, क्योंकि इसी के कारण रस अपनी परिपुष्टि की चरम स्थिति को पहुंचाया जाता है । जैसे
उदाहरण संख्या २१५२ पर उदाहत करान्तरालीन ॥ इत्यादि श्लोक ॥ ५६॥