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द्वितीयोन्मेषः
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प्रलंकारेण रूपकादिनोपसंस्कारः शोभान्तराधानं यत्तेन मनोहारि हदयरजकं निबन्धनमुपनिबन्धो यस्य स तथोक्तः। अलंकारस्योत्प्रेक्षादेरुपसंस्कारः शोभान्तराधानं चेति विगृह्य । तत्र तृतीयासमास पक्षोदाहरणं यथा
( ६ ) यह अन्य ( छठवां ) पर्याय का भेद 'पदपूर्वार्द्धवक्रता' को प्रस्तुत करता है--(जो ) अलङ्कारोपसंस्कार से रमणीय रचना वाला होता है । यहाँ 'अलङ्कारोपसंस्कार' शब्द में तृतीयासमास तथा षष्ठीसमास (रूप तत्पुरुष) करना चाहिए । इसलिये इस शब्द से दो अर्थ प्रतिपादित होते हैं ( तृतीया समास करने पर ) अलङ्कार अर्थात् रूपकादि के कारण जो उपसंस्कार अर्थात् दूसरी शोभा की सृष्टि उसके द्वारा मनोहर हृदय को आनन्दित करने वाले निबन्धन अर्थात् रचना वाला ( यह अर्थ होगा। तथा षष्ठी समास करने पर ) उप्रेक्षा आदि अलङ्कारों का जो उपसंस्कार अर्थात् दूसरी शोभा की उत्पत्ति उससे ( रमणीय रचना वाला पर्याय-यह अर्थ होगा)। उनमें तृतीया समास वाले पक्ष का उदाहरण जैसे
यो लीलातालवृन्तो रहसि निरुपधिर्यश्च केलीप्रदीपः कोपक्रीडासु योऽस्त्रं दशनकृतरुजा योऽधरस्यैकसेकः। आकल्पे दर्पणं यः श्रमशयनविधौ यश्च गण्डोपधानं देव्याः स व्यापदं वो हरतु हरजटाकन्दलीपुष्पमिन्दुः ॥४३॥
जो देवी पार्वती का विलासव्यजन है, एकान्त का निष्कपट केलिदीप है, प्रणयकोप के लिए जो अस्त्ररूप है, जो दाँतों के द्वारा उत्पन्न कर दी गई हुई पीड़ा वाले अधर के लिए एकमात्र सेंक का काम देता है, पत्ररचना के समय जो दर्पण का काम देता है और थक कर सोने के विषय में जो कपोलों के नीचे का तकिया है वह भगवान् शिव की जटारूपी कन्दली से निकला हुआ फूल चन्द्रमा तुम लोगों की विपत्ति को दूर करे ॥ ४३ ।।
पत्र तालवृन्तादिकार्यसामान्यादभेदोपचारनिबन्धनो रूपकालंकारविन्यासः सर्वेषामेव पर्यायाणां शोभातिशयकारित्वेनोपनिबद्धः।
यहां पर तालवृन्त आदि कार्यों में समान रूप से पाये जाने वाले एकाधिकरण्य के कारण तादात्म्यमूलक लक्षणा पर आधारित रूपक अलङ्कार का विन्यास सभी पर्यायों की शोभा को सर्वातिशायी रूप से प्रस्तुत करनेवाले के रूप में किया गया है।