________________
वक्रोक्तिजीवितम्
तदेवं यद्यपि सुस्पष्ट समन्वयोऽहं वाक्यार्थस्तथापि तात्पर्यान्तरमंत्र प्रतीयते । यस्मात् सर्वस्य कस्यचित्प्रजानाथत्वे सति सदैव तत्परिरक्षणस्याकरणस्याकरणमसंभाव्यम् । तत्पात्रत्वगर्भमेव तदभिहितम् । यस्मात् प्रत्यक्षप्राणिमात्रभक्ष्यमाणगुरुहोमधेनु प्राणपरिरक्षणापेक्षानिरपेक्षस्य सतो जीवतस्तवानेन न्यायेन कदाचिदपि प्रजापरिरक्षणं मनागपि न संभाव्यत इति प्रमाणोपपन्नम् ।
तदिदमुक्तम्
२१४
प्रमाणवत्त्वादायातः प्रवाहः केन वार्यते ॥ ४२ ॥ इति ।
तो इस प्रकार यद्यपि इस वाक्य ( श्लोक ) का अर्थ भली-भाँति समन्वित हो जाता है फिर भी यहाँ दूसरे अभिप्राय की प्रतीति होती है । क्योंकि सभी किसी के प्रजापति होने पर हमेशा ही उस प्रजा के परित्राण के न करने की सम्भावना नहीं की जा सकती ( अर्थात् कोई भी राजा अपनी प्रजा का परित्राण तो करेगा ही क्योंकि प्रजापालन ही तो इसका धर्म है । इस प्रकार गाय की रक्षा करना राजा दिलीप का धर्म है । उसकी रक्षा उन्हें अवश्य करनी चाहिए । यही 'प्रजानाथ' पद के द्वारा राजा का उपहास किया जा रहा है किं बनते प्रजानाथ हो पर एक गाय की रक्षा नहीं कर सकते ) इसी की पात्रता के अभिप्राय से युक्त रूप में उन्हें प्रजानाथ कहा गया है । क्योंकि प्रत्यक्ष ही केवल एक जीव ( सिंह ) के द्वारा ( जिसके पास कोई अस्त्र अथवा सेना नहीं है उसके द्वारा ) भक्षण की जानेवाली गुरु की यज्ञ की गाय के प्राणों का परित्राण करने से विमुख तुम्हारे जीवित रहने पर भी इसी प्रकार कभी प्रजा की थोड़ी भी रक्षा असम्भव है यह बात स्वयं ( अर्थापति ) प्रमाण से सिद्ध हो जाती है । जैसा कहा भी गया है कि--प्रमाणों से युक्त होने के कारण उपस्थित प्रवृत्ति को कौन रोक सकता है ।। ४२ ।।
अत्राभिधानप्रतीतिगोचरीकृतानां पदार्थानां परस्परप्रतियोगित्वमुदाहरण प्रत्युदाहरणन्यायेनानु संघयम् ।
इस विषय में उक्तिबोध में दृष्टिगत होने वाले पदार्थों की एक दूसरे के साथ प्रतियोगिता उदाहरणों और प्रत्युदाहरणों के द्वारा ( अन्वय व्यतिरेक से ) जान लेनी चाहिए ।
अयमपरः पर्यायप्रकारः पदपूर्वार्धवक्रतां विदधाति -- प्रलं कारोपसंस्कार मनोहारिनिबन्धनः । त्र 'अलंकारोपसंस्कार' शब्दे तृतीयासमासः षष्ठीसमासश्च करणीयः । तेनार्थद्वयमभिहितं भवति ।