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द्वितीयोन्मेष:
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जा रहा है कि आप हैं तो महीपाल लेकिन एक गाय की भी रक्षा नहीं कर सकते । इसी राजा के असामर्थ्य को ही सूचित करने के लिए इस पद को प्रयुक्त किया गया है | )
यथा वा
भूतानुकम्पा तत्र चेदिवं गोरेका भवेत् स्वस्तिमतो त्वदन्ते । जीवन् पुनः शश्वदुपप्लवेभ्यः प्रजाः प्रजानाथ पितेव पासि ॥ ४१ ॥ अथवा जैसे ( इसका दूसरा उदाहरण ) -
( उसी दिलीप एवं सिंह संवाद में से यह पद्य भी उद्घृत है । जब राजा अपने प्राणों का उत्सर्ग कर उस गाय की रक्षा करने को तैयार हो जाते हैं तो सिंह राजा से कहता है कि - )
यह ( इस गाय की रक्षा के हेतु तुम्हारा अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देना ) यदि तुम्हारी जीवों पर कृपा है, ( तो भी तुम्हारे प्राणों का उत्सर्ग ठीक नहीं क्योंकि ) तुम्हारा विनाश हो जाने पर, यह अकेली ही गाय कल्याणमती हो सकेगी। जब कि हे प्रजापति ! आप जीवित रहते हुए हमेशा पिता के समान ( तमाम ) प्रजाओं को उपद्रवों ( अथवा विपत्तियों) से बचाओगे | ( अतः केवल एक ही गाय के लिए तुम्हारा प्राणपरित्याग ठीक नहीं ) ॥ ४१ ॥
er यदि प्राणिकरुणाकारणं निजप्राणपरित्यागमाचरसि यदप्ययुक्तम् । यस्मात्त्वदन्ते स्वस्तिमती भवेदियमेकैव गौरिति त्रितयमप्यनादरास्पदम् । जीवन् पुनः शश्वत्सदैवोपप्लवेभ्योऽनर्थेभ्यः प्रजाः सकलभूतधात्रीवलयवर्तिनीः प्रजानाथ पासि रक्षसि । पितेवेत्यनादरातिशयः प्रथते ।
यहाँ यदि तुम जीवों पर अनुकम्पा होने के कारण अपने प्राणों का विसर्जन कर रहे हो तो वह भी ठीक नहीं। क्योंकि १ - तुम्हारा विनाश हो जाने पर, २ - यह अकेली ही, ३ - ( वह भी ) गाय कल्याणमती होगी । इस प्रकार ये तीनों ही बातें तिरस्कारयोग्य हैं जबकि आप १ - जीवित रहते हुए, २ - समस्त भूमण्डल पर निवास करनेवाली ( तमाम ) प्रजाओं की हे प्रजानाथ ! पिता के समान हमेशा अनेक उपद्रवों अथवा अनर्थों से, ३-रक्षा कर संकोगे । इसके द्वारा ऊपर कहे गए तिरस्कार का और भी अतिरेक प्रतिपादित करता है
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