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वक्रोक्तिजीवितम्
वनिता आदि हजारों पर्यायों के होने पर भी ( कवि द्वारा प्रयुक्त ) 'गौराङ्गी यह कथन ग्राम्य न होने के कारण अत्यन्त ही मनोहर है ।
श्रयमपरः पर्यायप्रकारः पदपूर्वार्धवत्रताभिधायी -- असंभाव्यार्थ - पात्रत्वगर्भं यश्चाभिधीयते । वर्ण्यमानस्यासंभाव्यः संभावयितुमशक्यो योऽर्थः कश्चित्परिस्पन्दस्तत्र पात्रत्वं भाजनत्वं गर्भोऽभिप्रायो यत्राभिधाने तत्तथाविधं कृत्वा यश्चाभिधीयते भण्यते । यथा
(५) 'पदपूर्वार्द्ध वक्रता' का प्रतिपादक यह अन्य ( पाचवाँ ) पर्याय का भेद है कि -- जो ( पर्याय ) असम्भाव्य अर्थ के पात्र होने के अभिप्राय वाला कहा जाता है । वर्णित की जाने वाली वस्तु का असम्भाव्यमान अर्थात् जिसकी सम्भावना नहीं की जा सकती है ऐसा जो अर्थ अर्थात् कोई विशेष धर्म होता है उसका पात्र अर्थात् भाजन होने का गर्भ अर्थात् अभिप्राय जिस कथन में निहित होता है वह उस प्रकार का जो पर्याय कहा जाता है । जैसे --
श्रलं महीपाल तव श्रमेण प्रयुक्तमप्यस्त्रमितो वृथा स्यात् । न पादपोन्मूलनशक्ति रहः शिलोच्चये मूर्च्छति मारुतस्य ॥ ४० ॥
( रघुवंश महाकाव्य में राजा दिलीप का गुरु की गाय के रक्षार्थ तरकश से बाण निकालते समय उसी में हाथ फँस जाने पर सिंह राजा से कहता है कि ) हे पृथ्वीपते ! अब ( इस गाय को मेरे चंगुल से बचाने के लिए ) आपका ( मुझ पर बाण चलाने का ) प्रयास व्यर्थ है, ( क्योंकि ) इधर ( मेरे ऊपर ) फेंका गया आप का ) शस्त्र निष्फल हो जायगा । जैसे ( विशाल ) वृक्षों को उखाड़ फेंकने में समर्थ भी हवा का वेग पहाड़ पर मूच्छित हो जाता है ( पहाड़ को नहीं उखाड़ पाता ) ।। ४० ।।
श्रत्र महीपालेति राज्ञः सकल पृथ्वीपरिरक्षणमपौरुषस्यापि तथाविधप्रयत्न परिपालनीय गुरु गोरूपजीवमात्र परित्राणासामर्थ्यं स्वप्नेऽप्यसंभावनीयं यत्तत्पात्रत्वगर्भमामन्त्रणमुपनिबद्धम् ।
यहाँ पर 'महीपाल' ऐसा सम्बोधन पद समस्त वसुन्धरा की भलीभाँति रक्षा करने में समर्थ पराक्रम वाले राजा की जो स्वप्न में भी सम्भावित न किए जा सकनेवाली उस प्रकार के प्रयत्नों से सम्यक् पालन किये जाने योग्य गुरु की गाय रूप केवल एक ही प्राणी की भी रक्षा करने में असमर्थता है, उसकी पात्रता के अभिप्राय से युक्त रूप में प्रयुक्त हुआ है । ( अर्थात् राजा को सम्पूर्ण पृथ्वी का रक्षक बता कर उनका उपहास किया