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द्वितीयोन्मेषः
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ताण्डव लीलापण्डिताब्धिलहरीगुरुपादः । इत्थमुत्कयति उत्थितं विषमकाण्डकुटुम्बस्यांशुभिः स्मरवतीविरहो माम् ॥ ३९ ॥
स्मरवती (प्रियतमा) का विरह नृत्यलीला निपुण सागर की लहरियों की प्रशस्त आचार्य पंचबाण के मित्र चन्द्र की किरणों के कारण इस तरह उठ पड़े हुए मुझको व्याकुल किए दे रहा है ॥ ३९ ॥
अत्रेन्दुपर्यायो 'विषमकाण्डकुटुम्ब' -शब्दः कविनोपनिबद्धः । यस्मान्मृगाङ्कोदय द्वेषिणा विरहविधुरहृदयेन केनचिदेतदुच्यते । यदयमप्रसिद्धोऽप्यमरिम्लानसमन्वयतया प्रसिद्धतमतामुपनीतस्तेन प्रथमतरोल्लिखितत्वेन च चेतनचमत्कारितामवगाहते । एष च स्वच्छायोत्कर्षपेशलः सहजसौकुमार्यसुभगत्वेन नूतनोल्लेखविलक्षणत्वेन च कविभिः पर्यायान्तरपरिहारपूर्वकमुपवर्ण्यते । यथा
यहाँ कवि ने चन्द्रमा के ( वाचक ) पर्याय के रूप में 'विषमकाण्डकुटुम्ब'शब्द को उपनिबद्ध किया है । ( तात्पर्य यह कि 'विषमकाण्डकुटुम्ब' शब्द चन्द्रमा का पर्यायवाची नहीं है किन्तु जिस प्रकार से विषम काण्डों अर्थात् ५ बाणों वाला कामदेव विरहियों को कष्ट पहुँचाता है उसी प्रकार चन्द्रमा भी उनके लिए कष्टदायक होता है इसी लिए चन्द्रमा को कामदेव का कुटुम्बी, उसका स्वजन बताया गया है ) क्योंकि ( प्रियतमा के ) विरह से विकल हृदय चन्द्रोदय से वैर रखने वाला कोई ( विरही ) कह रहा है । क्योंकि यह ( शब्द चन्द्रमा के पर्याय रूप में ) प्रख्यात न होते हुए भी अछूते सम्बन्ध के कारण अत्यन्त ख्याति को प्राप्त कराया गया है अतः सर्वप्रथम ( चन्द्र के पर्याय रूप में ) उल्लिखित अथवा प्रयुक्त होने के कारण प्राणियों को आनन्दित करता है । तथा अपनी ही शोभा के आधिक्य से मनोहर इस ( पर्याय ) का अपनी स्वाभाविक सुकुमारता से रमणीन होने के कारण एव अभिनव उल्लेख से विलक्षण होने के कारण कविजन दूसरे पर्यायों का परित्याग कर प्रयोग करते हैं । जैसे
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कृष्णकुटिल केशीति वक्तव्ये यमुनाकल्लोल वालकेति । यथा वा गौराङ्गीवदनापमा परिचित इत्यत्र वनितादिवाचकसहस्रसद्भावेऽपि गौराङ्गीत्यभिधानमतीव रमणीयम् ।
'काले एवं टेढ़े बालों वाली' कहने के लिए ' कालिन्दी कल्लोल यमुना की तरङ्गों के समान कुश्चित चूर्णकुन्तलों वाली' कहा जाय । अथवा जैसे
( पहले उदाहरण संख्या २।३४ पर उद्धृत 'सम्बन्धी रघुमूभुजा' - इत्यादि पद के द्वितीय चरण ) 'गौराङ्गीवदनोपमा परिचित:' में ( स्त्री के वाचक )