SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१६ वक्रोक्तिजीवितम् षष्ठीसमासपक्षोदाहरणं यथा देवि त्वन्मुखपडूजेन शशिनः शोभातिरस्कारिणा वश्याब्जानि विनिजितानि सहसा गच्छन्ति विच्छायताम् ॥४४॥ षष्ठी-पमास वाले पक्ष का उदाहरण जैसे--( रत्नावली नाटिका में नायक वत्सराज उदयन देवी वासवदत्ता की चाटुकारिता में लगा हुआ कहता है कि)--हे देवि ! देखो, शशधर की सुषमा की अवहेलना करने वाले तुम्हारे वदनारविन्द से पराजित अथवा तिरस्कृत ये कमल अकस्मात् शोभाहीन होते जा रहे हैं ॥ ४४ ॥ __ अत्र स्मरससंप्रवृत्तसायंसमयसमुचिता सरोरुहाणां विच्छायताप्रतिपत्ति यकेन नागरकतया वल्लभोपलालनाप्रवृत्तेन तनिदर्शनापक्रम रमणीयत्वमुखेन निजितानीवेति प्रतीयमानोत्प्रेक्षालंकारकारित्वेन प्रतिपाद्यते । एतदेव च युक्तियुक्तम् । यस्मात्सर्वस्य कस्यचित्पङ्कजस्य शशाङ्कशोभातिरस्कारितां प्रतिपद्यते। त्वन्मुखपङ्कजेन पुनः शशिनः शोभातिरस्कारिणा न्यायतो निजितानि सन्ति विच्छायतां गच्छन्तीवेति प्रतीयमानस्योत्प्रेक्षालक्षणस्यालंकारस्य शोभातिशयः समुल्लास्यते । यहाँ अपनी सन्ध्यावेला के अनुरूप स्वाभाविक ढङ्ग से सम्पन्न होने वाली कमलों की शोभाहीनता की संवित्ति को, प्रियतमा की चाटुकारिता में प्रवृत्त नायक ने बड़े ही चातर्यपूर्ण ढङ्ग से उन कमलों के साथ सादृश्य बताने के उपक्रम से रमणीयता के प्रतिपादन द्वारा 'मानों पराजित से हो गए हैं। इस प्रकार से गम्य उत्प्रेक्षा अलङ्कार के विधायक रूप में प्रतिपादित किया है। तथा यही समीचीन भी है। क्योंकि सभी किसी कमल की कान्ति चन्द्रमा की कान्ति से अनाहत हो जाती है फिर भला चन्द्रमा की (भी) कान्ति की अवहेलना करने वाले तुम्हारे मुखारविन्द से पराजित होकर जो शोभाहीन से होते जा रहे हैं यह तो न्यायानुकूल ही है। इस प्रकार गम्य उत्प्रेक्षारूप अलङ्कार का सौन्दर्यातिशय व्यक्त किया जा रहा है। ___ एवं पर्यायवक्रतां विचार्य क्रमसमुचितावसरामपचारवक्तां विचारयति यत्र दूरान्तरेऽन्यस्मात्सामान्यमुपचर्यते । लेशेनापि भवत् कांचिद्वक्तुमुद्रिक्तवृत्तिताम् ॥ १३ ॥ इस प्रकार पर्यायवक्रता का विवेचन कर क्रमानुसार अवसरप्राप्त उपचारवक्रता का विवेचन प्रस्तुत करते हैं
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy