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द्वितीयोन्मेष:
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केवल हाथी का बोध कराता है । परन्तु शेष बची हुई ( लक्षणा ) वृत्ति के द्वारा 'चाण्डाल रूप अप्रस्तुत वस्तु का बोध कराता हुआ रूपकालङ्कार की शोभा के स्पर्श से 'गौर्वाहीक: ' में प्रयुक्त न्याय से सादृश्य के कारण उपचार के सम्भव होने से प्रस्तुत ( वारण रूप ) वस्तु में उस ( चाण्डाल रूप अप्रस्तुत वस्तु के ) भाव का आरोप करता हुआ 'पर्यायवक्रता' का पोषण करता है । क्योंकि इस प्रकार ( सादृश्यमूला लक्षणा ) के विषय में प्रस्तुत के अप्रस्तुत के साथ सम्बन्ध को कभी रूपकालङ्कार के द्वारा अथवा कभी उपमालङ्कार के द्वारा व्यक्त किया जाता है । जैसें ( उसमें ( स ) और इसमें (अयम् ) सादृश्य का बोध या तो ) 'वह ही यह है' इस प्रकार ( रूपक के द्वारा ) अथवा 'यह उसके समान है' इस प्रकार ( उपमा के द्वारा कराया जा सकता है | )
टिप्पणी- इस स्थल की व्याख्या करते समय कवि ने कुछ ऐसे प्रयोग किए हैं जो अधिक व्याख्या की अपेक्षा रखते हैं । उनमें हम एक एक की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं ।
१ 'मातङ्ग' शब्द केवल प्रस्तुत 'हाथी' प्रर्थ का बोध कराता है। इसका तात्पर्य यह है कि यद्यपि 'मातङ्ग' शब्द का अर्थ 'हाथी' एव 'चाण्डाल' दोनों है । दोनों ही सङ्केतित अर्थ हैं । सङ्केतित अर्थ का बोध कराने वाली शक्ति-अभिधा वृत्ति कहलाती है । जैसा कि साहित्य दर्पणकार के शब्दों में— 'तत्र सङ्केतितार्थस्य बोधनादग्रिमाभिधा ॥ २४ ॥ यही सर्वप्रथम प्रवृत्त होती है । किन्तु जहाँ एक शब्द में अनेक अर्थों का संकेत रहता है वहाँ किसी विशेष अर्थ का बोध कराने में अभिधा का निम्न हेतुओं से नियन्त्रण हो जाता है । वे हेतु हैं
" संयोगो विप्रयोगश्च साहचयं विरोधिता । अर्थः प्रकरणं लिङ्गं शब्दस्यान्यस्य सन्निधिः ॥ सामथ्यमौचिती देशः कालो व्यक्तिः स्वरादयः । शब्दार्थस्थानवच्छेदे विशेषस्मृतिहेतव:
॥" इति ॥
यहाँ हमें अभिधा का प्रकरण से किसी अर्थ में कैसे नियंत्रण होता है इस पर विचार करना है । जैसे कोई भृत्य अपने स्वामी से कहता है कि "सर्व जानाति देवः ।" यहाँ प्रकरण के कारण देव शब्द का 'आप' अर्थ में नियंत्रण हो जाता है । अर्थात् अमिधा केवल 'आप' अर्थ का ही बोध करा कर क्षीण हो जाती । उसी प्रकार यहाँ प्रकरण भ्रमर एवं हाथी का ही प्रस्तुत है इसलिये अभिधा का मातङ्ग शब्द के द्वारा हाथी अर्थ देने में