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वक्रोक्तिजीवितम् अयमपरः पर्यायप्रकारः पदपूर्वार्धवक्रतानिबन्धनः--यस्तदलं. कर्तुमीश्वरः । तदभिधेयलक्षणं वस्तु विभूषयितुं यः प्रभवतीत्यर्थः।। कस्मात-रम्यच्छायान्तरस्पर्शात । रम्यं रमणीयं यच्छायान्तरं विच्छित्यन्तरं श्लिष्टत्वादि तस्य स्पर्शात , शोभान्तरप्रतीतेरित्यर्थः।। कथम्-स्वयं विशेषणेनापि । स्वयमात्मनैव, स्वविशेषणभूतेन पदान्तरेण वा। तत्र स्वयं यथा
(३) पदपूर्वाद्ध वक्रता के हेतुभूत पर्याच का यह अन्य भेद है किजो (पर्याय ) उसे अलङ्कृत करने में सामर्थ्यवान है अर्थात् उस अभिधेय रूप वस्तु को मण्डित करने में समर्थ होता है। किससे (मण्डित करने में)रमणीय दूसरी शोभा के स्पर्श से। रम्य अर्थात् मनोरम जो दूसरी छाया अर्थात् श्लिष्टता आदि अन्य कान्ति उसके स्पर्श से। तात्पर्य यह कि दूसरी शोभा की प्रतीति से ( मण्डित करने में समर्थ होता है )। कैसे ( समर्व होता है ) स्वयं तथा विशेषण से भी। स्वयं अर्थात् अपने आप अथवा अपने विशेषण रूप अन्य पदार्थ के द्वारा ( अभिधेय को विभूषित करने में) समर्थ होता है। उनमें स्वयं जैसे ( अभिधेय को विभूषित करता है उसका उदाहरण )
इत्थं जडे जगति को नु बृहत्प्रमाणकर्णःकरी ननु भवेद् ध्वनितस्य पात्रम् । इत्यागत झटिति योऽलिनमुन्ममाथ
मातङ्ग एव किमतः परमुच्यतेऽसौ ॥ ३५॥ इस तरह के जड़ संसार में ( हमारे ) शब्दों का पात्र कौन हो सकता है सम्भवतः बहुत बड़े आकार वाले कानों वाला हाथी ही हो सकता है इसी से आये हुए भ्रमर को जिसने तुरन्त ही मसल डाला अतः वह मातङ्ग (चाण्डाल ) ही है। इससे अधिक और उसे क्या कहा जा सकता है ॥३५॥
अत्र 'मातङ्ग'-शब्दः प्रस्तुते वारणमात्रे प्रवर्तते। शिष्टया वृत्या चण्डाललक्षणस्याप्रस्तुतस्य वस्तुनःप्रतीतिमुत्पादयन् रूपककालंकारच्छायासंस्पर्शाद् गौर्वाहीक इत्यनेन न्यायेन सादृश्यनिबन्धनस्योपचारस्य संभवात् प्रस्तुतस्य वस्तुनस्तत्वमध्यारोपयन् पर्यायवक्रतां पुष्णाति । यस्मादेवंविधेविषये प्रस्तुतस्याप्रस्तुतेन संबन्धोपनिबन्धो रूपकालंकारद्वारेण कदाचिदुपमामुखेन वा । यथा 'स एवायंस इवाय' मिति वा।
यहाँ पर 'मातङ्ग' शब्द ( अभिधावृत्ति से प्रकरण द्वारा अभिधा के केवल हाथी रूप अर्थ में ही नियन्त्रित हो जाने से ) प्रस्तुत ( वर्ण्यमान )