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द्वितीयोन्मेषः
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किए हुए राम ( मार्ग में ) सीता की स्वच्छन्द वार्ता के प्रसङ्ग में यह कहते हैं कि हे सुन्दरि ! चंद्रमा को देखो । अर्थात् सौंदर्य के कारण मनोहारिणि सीते ! समस्त लोक के नेत्रों को आनन्दित करने वाले चन्द्रमा का विचार करो। क्यों उसी प्रकार के लोगों का वह भलीभाँति विचार का विषय बन सकता है । ( तात्पर्य यह कि सोने का पारखी जौहरी ही हो सकता है। किसी की विद्वत्ता का विचार कोई विद्वान ही कर सकता है । अत: तुम्हीं इस सुन्दर चन्द्रमा का विचार कर सकती हो क्योंकि तुम स्वयं सुन्दर हो । यही 'सुन्दरि ' पर्याय की वक्रता है ।) 'रघुवंशी राजाओं का यह सम्बन्धी है' इससे यह कोई हमारा नवीन स्वजन नहीं ( अपितु प्राचीन ही है ) अतः इसकी ओर देखकर इसके प्रति सम्मान प्रकट करो, ऐसा दूसरे ढङ्ग से भी चन्द्रमा के विषय में सम्मान का बोध होता है । ( भाव यह कि यह केवल सुन्दर है अत: इसे सम्मान प्रदान करो यही बात नहीं है, अपितु यह हमारा प्राचीन बन्धु भी है इस लिये दर्शन से इसे सम्मानित करो ) तथा शेष ( मनसिजव्यापारदीक्षागुरुः इत्यादि ) शब्द उस ( चन्द्रमा) के उत्कर्ष को धारण करने की अपनी तत्परता को ही प्रकट करते हैं । ( अर्थात् चन्द्रमा के उत्कर्ष को व्यक्त करते हैं ) और इसी लिए प्रस्तुत अर्थ (चन्द्रमा) के प्रति अलग-अलग ( उसके ). अतिशय की प्रतीति कराने से बहुत से पर्याय भी पुनरुक्तं से नहीं प्रतीत होते । ( उक्त 'सम्बन्धी रघुभूभुजाम् -' इत्यादि पद के ) तृतीय चरण (सद्योमार्जित दाक्षिणात्य तरुणीदन्तावदातद्यति:' ) में 'विशेषणवक्रता' है, 'पर्यायवक्रता' नहीं ।
टिप्पणी- आचार्य ने तृतीय चरण में 'विशेषणवक्रता' बताई है । शेष में पर्यावक्रता । विशेषणवक्रता का स्वरूप - जैसा कि इसी उन्मेष की १५ वीं कारिका में बताया जायगा — इस प्रकार है- 'जहाँ विशेषण के महात्म्य से क्रिया का रूप अथवा कारकरूप वस्तु की रमणीयता उद्भासित है वहाँ 'विशेषणवक्रता' होती है।' इस प्रकार उक्त पद्य का तृतीय चरण चन्द्रमा के पर्याय के रूप में नहीं प्रयुक्त हुआ है वह केवल विशेषण रूप में ही प्रयुक्त है क्योंकि - ' तत्काल मञ्जन किए गये दक्षिण प्रदेश की युवतियों के दाँतो की तरह सफेद कान्ति वाला' केवल चन्द्रमा को सफेदी से विशिष्ट बताता है अतः उसका पर्याय नहीं है और इसके प्रयोग से जो चमत्कार आया वह विशेषण की ही वक्रता होगी। जब कि ' चण्डीशचूडामणिः', 'तारावधूवल्लभ:' इत्यादि पद चन्द्रमा के पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त हैं । अतः उनसे जो सौन्दर्य प्रतीत्ति हुई वह 'पर्याय वक्रता' होगी ।