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वक्रोक्तिजीवितम् पर्याय कहा जाता है )। क्योंकि अपनी सहज कोमलता से रमणीय भी पदार्थ उस ( पर्याय ) के द्वारा परिपुष्ट किए गये उत्कर्ष से युक्त होकर सहृदयों का अत्यन्त मनोहारी बन जाता है । जैसे
संबन्धी रघुभूभुजां मनसिजव्यापारदीक्षागुरुगौरागीवदनोपमापरिचितस्तारावधूवल्लभः । सद्योमाजितदाक्षिणात्यतरुणीदन्तावदातद्युतिश्चन्द्रः सुन्दरि दृश्यतामयमितश्चण्डीशचूगामणिः ॥ ३४ ॥ 'बालरामायण के दशम अङ्क में पुष्पक विमान द्वारा लङ्का से अयोध्या को आते समय राम सीता से चन्द्रमा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि हे सुन्दरि सीते ! इधर रघुवंशी नृपों के संबंधी, मदन व्यापार संबंधी मंत्रों के उपदेष्टा, गौर वर्ण अङ्गों वाली रमणियों के मुखों के सादृश्य के लिए विख्यात, ताराङ्गनाओं के प्रियतम तथा तत्काल मांजे गये दक्षिण प्रदेश की युवतियों के दांतों के समान सफेद छवि वाले, अम्बिकेश के शिरोरत्न इस चन्द्रमा को देखो ॥ ३४॥
टिप्पणी-चह बालरामायण के दशम अङ्क का ४१ वा श्लोक है । किन्तु वहाँ इसका प्रथम चरण चतुर्थ चरण के रूप में आया है एवं पद्य का प्रारम्भ 'गौराङ्गी ...' इत्यादि द्वितीय चरण से होता है।
अत्र पर्यायाः सहजसौन्दर्यसंपदुपेतस्यापि चन्द्रमसः सहृदयहृदयाह्लादकारणं कमप्यतिशयमुत्पादयन्तः पदपूर्विवक्रतां पुष्णन्ति । तया च रामेण रावणं निहत्य पुष्पकेग गच्छता सीतायाः सवित्रम्भं स्वरकथास्वेतदभिधीयते यच्चन्द्रः सुन्दरि दृश्यतामिति, रामणीयकमनोहारिणि सकललोकलोचनोत्सवश्चन्द्रमा विचार्यतामिति । यस्मात्तयाविधानामेव तादृशः समुचितो विचारगोचरः। संबन्धो रघुभभुजामित्यनेन चास्माकं नापूर्वो बन्धुरयमित्यवलोकनेन संमान्यतामिति प्रकारान्तरेणापि तद्विषयो बहुमानः प्रतीयते। शिष्टाश्च तदतिशयाधानप्रवणत्वमेवात्मनःप्रययन्ति । तत एव च प्रस्तुतमयं प्रति प्रत्येक पृथक्त्वेनोत्कर्षप्रकटनात्पर्यायाणां बहूनामप्यपौनरुक्त्यम । तृतीये पादे विशेषणवत्रता विद्यते, न पर्यायवक्रत्वम् ।
यहाँ पर पर्याय ( शब्द ) स्वभावतः रम गीयता की सम्पत्ति से सम्पन्न भी चन्द्रमा के, सहृदयों के हृदयों के आनंद के हेतुभूत किमी (अपूर्व) अतिशय की सृष्टि करते हुए पदपूर्ति वक्रता का पोषण करते हैं। जैसे कि लङ्कापति रावण का वध कर ( अयोध्या के लिये ) पुष्पक विमान से प्रस्थान