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________________ द्वितीयोन्मेषः २०३ के गले में बाँह डाले हुए उस ( कामदेव ) को जला दिया । उन त्रिशूल को धारण करने वाले ( भगवान् शङ्कर ) को प्रणाम है ।। ३३ ।। अत्र परमेश्वरे पर्यायसहस्रेष्वपि संभवत्सु 'शूलिने' इति यत्प्रयुक्तं तत्रायमभिप्रायो यत्तस्मै भगवते नमस्कारव्यतिरेकेण किमन्यदभिधीयते । यत्तत्तथाविधोत्सेक परित्यक्तविनयवृत्तेः स्मरस्य कुपितेनापि तदभिमता वलोकव्यतिरेकेण तेन सततसंनिहितशूलेनापि कोपसमुचितमायुषग्रहणं नाचरितम् । लोचनपातमात्रेणैव कोपकार्यकरणाद्भगवतः प्रभावातिशयः परिपोषितः । अत एव तस्मै नामोऽस्त्विति युक्तियुक्ततां प्रतिपद्यते । यहाँ भगवान् शङ्कर के वाचक हजारों पर्यायों के सम्भव होने पर भी कवि ने जो 'शूलिन, ( त्रिशूलधारी ) पर्याय पद को प्रयुक्त किया है उसका आशय यह है कि उन ऐश्वर्यशाली शङ्कर के लिए नमस्कार के अलावा और कहा ही क्या जा सकता है क्योंकि उस प्रकार की घृष्टता से विनम्रता का परित्याग कर देने वाले कामदेव पर क्रुद्ध हो जाने पर भी एवं निरन्तर त्रिशूल को धारण किए रहने पर भी उन्होंने उस ( कामदेव ) के अभिमत दर्शन से भिन्न अपने क्रोध के अनुरूप हथियार नहीं उठाया । ( अर्थात् यदि वे चाहते तो अपने त्रिशूल से काम को तमाम कर देते लेकिन फिर भी उन्होंने उसकी ओर केवल देखा ही था जैसा कि आपने स्वयं कहा था कि यदि मेरा बल देखना है तो देखो ( पश्य ) । इसीलिए कुन्तक ने तदभिमत् शब्द को प्रयुक्त किया है - जिसकी कि व्याख्या करना ही आचार्य विश्वेश्वर जी भूल गए । ) साथ ही केवल देखने भर से ही ( काम को भस्म कर देने से ) क्रोध का कार्य सम्पन्न हो जाने के कारण भगवान् शङ्कर के प्रताप का उत्कर्ष और भी अधिक पुष्ट हो गया है । अत: उनको नमस्कार है, यह कथन अत्यन्त ही समीचीन प्रतीत होता है । ( इस प्रकार इस उदाहरण में 'शूलिनः ' शब्द के प्रयोग से पर्यायवक्रता परिपुष्ट हुई है ) । अयमपरः पदपूर्वार्धवक्रताहेतुः पर्यायः - यस्तस्यातिशयपोषकः । तस्माभिधेयस्यार्थस्यातिशयमुत्कर्षं पुष्णाति यः स तथोक्तः । यस्मात् सहज सौकुमार्यसुभगोऽपि पदार्थस्तेन परिपोषितातिशयः सुतरां सहृदयहृदयहारितां प्रतिपद्यते । यथा (२) पदपूर्वाद्ध वक्रता का कारण यह दूसरा पर्याय ( प्रकार ) है - जो उसके अंतिशय को पुष्ट करने वाला है । उस अभिधेय अर्थ के अतिशय अर्थात् उत्कर्ष का जो पोषण करता है वह ( अभिधेय के उत्कर्ष को पुष्ट करने वाला
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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