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वक्रोक्तिजीवितम्
प्रतीतिः । ' तपस्वि' - शब्दोऽप्यतितरां रमणीयः । यस्मात् सुभटसायकानामादरो बहुमानः कदाचिदुपपद्यते, तापसमार्गणेषु पुनरकिंचित्करेषु कः संरम्भ इति ।
यहाँ महेन्द्र के वाचक अनेक पर्याय शब्दों के होने पर भी ( कवि द्वारा ( प्रयुक्त 'वज्रिण:' ( अर्थात् वज्र धारण करने वाला ) यह शब्द पर्याय - वक्रता का पोषण करता है । क्योंकि ( जो बाण ) सदैव वजू को धारण करनेवाले देवाधिप इन्द्र के भी शौर्य के विभव हैं इससे बाणों की अलौकिकता द्योतत होती है। साथ ही 'तपस्वि' पद भी अत्यधिक रमणीय है, क्योंकि शूरों के बाणों के प्रति शायद कभी आदर अथवा अभिलाष उचित भी हो पर तपस्वियों के बेकार बाप्पों के प्रति कैसी अभिरुचि हो सकती है । ( इस प्रकार यहाँ प्रयुक्त 'तपस्वि' पद भी अत्यधिक चमत्कारकारी है, क्योंकि यदि किरात यहाँ केवल अर्जुन के लिए किसी विशेष वाचक पद का प्रयोग करता तो वह चमत्कार न आ पाता जो सामान्य वाचक 'तपस्वि' पद से आ गया है । )
गथा वा
कस्त्वं ज्ञास्यसि मां स्मर स्मरसि मां दिष्टया किमम्यागतस्त्वामुन्मादयितु कथं ननु बलात् किं ते बलं पश्य तत् । पश्यामीत्यभिधाय पावकमुचा यो लोचनेनैव तं कान्ताकण्ठनिषक्त बाहुमबहुत्तस्मै नमः शूलिने ॥ ३३ ॥
अथवा जैसे ( इसी पर्यायवक्रता का दूसरा उदाहरण ) - ( जिस समय देवराज इन्द्र के अनुरोध से कामदेव भगवान् शङ्कर की समाधि भङ्ग करने के लिए उनके पास जाता है, उसी अवसर पर काम और शङ्कर की परस्पर नाट्यपूर्ण वार्ता का वर्णन कवि प्रस्तुत करता है कि - ) ( शङ्कर - ) तू कौन है रे ? ( काम० ) अभी ( अपने आप ) मुझे जान जाओगे ( उतावले मत बनो ) | ( शङ्कर ) अरे ( धूर्त ) काम ! तू मेरा स्मरण करता है ? ( या नहीं जो मुझे अभी पता लगवाने आया है ) | ( काम० ) हाँ, हाँ, बड़े प्रेम से ( मुझे आप की याद आ रही है ) | ( शङ्कर ) तो फिर यहाँ किस लिए आया है ? ( काम ० ) - तुम्हें उन्मत्त बनाने के लिये ! ( शङ्कर ) - सो कैसे । ( काम ० ) अरे बलपूर्वक ( और कैसे ) | ( शङ्कर ) - ( वाह ) कौन-सा है तेरा वह बल ( जिसके भरोसे उछल रहा है) । ( काम ० ) - ( हहह मेरा बल जानना चाहते हो तो ) देखो। शङ्कर - ( अ दिखा अब तेरा बल ही में देखता हूँ ऐसा कहकर जिन्होंने आग उगलने वाले ( अपने ललाट के ) नेत्र से ही अपनी प्रियतमा