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________________ द्वितीयोन्मेषः २०१ प्रवर्तते, कदाचिद्वाचकान्तरमिति । तेन पूर्वोक्तनीत्या बहुप्रकारः पर्यायोऽभिहितः, तर्हि कियन्तस्तस्य प्रकाराः सन्तीत्याह-अभिधयान्तरतमः । अभिधेयं वाच्यं वस्तु तस्यान्तरतमः प्रत्यासन्नतमः । यस्मात पर्यायशब्दत्वे सत्यप्यन्तरंगत्वात् स यथा विवक्षितं वस्तु व्यक्ति तथा नान्यः कश्चिदिति । यथा पूर्वोक्त विशेषणों से विशिष्ट जो काव्य में पर्याय ( होता है उसके कारण जो वैचित्र्य अर्थात् विशेष प्रकार की शोभा होती है वह कोई प्रकृष्ट पर्यायवक्रता कही जाती है। दूसरे शब्द का स्थान ग्रहण करने की क्षमता जिसमें प्रधान रूप से पाई जाती है उसे पर्याय शब्द कहते हैं। उसकी पर्याय प्रधानता यही है कि वह कभी कहने के लिए अभिप्रेत वस्तु के विषय में वाचकरूप से प्रवृत्त होता है, कभी दूसरे वाचक के रूप में। इस लिये पूर्वोक्त न्याय से अनेक प्रकार का पर्याय बताया गया है। (१) ( जो) अभिधेय का अत्यन्त अन्तरङ्ग होता है। अभिधेय अर्थात् प्रतिपाद्य वस्तु उसका अन्तरतम अर्थात् निकटतम होता है। क्योंकि पर्याय शब्द होने पर भी ( अर्थात् उस शब्द के स्थान पर उसका दूसरा पर्याय भी प्रयुक्त किया जा सकता है फिर भी) अत्यन्त अन्तरङ्ग होने के कारण कहने के लिये अभिप्रेत वस्तु को जैसे वह व्यक्त कर देता है वैसे कोई दूसरा ( पर्याय ) नहीं व्यक्त कर सकता है । जैसे नाभियोक्तुमनृतं त्वमिष्यसे कस्तपस्विविशिखेषु चादरः। सन्ति भूभूति हि नः शराः परे ये पराक्रमवसूनि वज्रिणः॥३२॥ (किरातार्जुनीय महाकाव्य में अर्जुन के पास अपने सेनापति शिव के बाण के लिए गया हुआ किरात अर्जुन से कहता है कि )-आपसे हम मिथ्या कथन करने की इच्छा नहीं कर सकते ( अर्थात् हम आपके बाणों के लिये झूठ बोलें यह असम्भव है । ) क्योंकि ( आप सरीखे शोच्य) मुनियों के बाणों में ( हमारी) कैसी आस्था ? ( वैसे तो) हमारे नरेश के पास ( अनेक ) ऐसे बाण हैं जो वज्रधारी ( इन्द्र ) के शौर्य के विभव अर्थात् सर्वस्व हैं । ( तात्पर्य यह कि वे बाण इन्द्र के वज़ का भी अतिक्रमण करने वाले हैं ) ।। ३२॥ अत्र महेन्द्रवाचकेष्वल्सयेषु संभवत्सु पर्यायशब्देषु 'वनिगः' इति प्रयुक्तः पर्यायवक्रतां पुष्णाति । यस्मात् सततसंनिहित वज्रस्यापि सुरपतेयें पराक्रमवसूनि विक्रमधनानीति सायकानां लोकोत्तरस्व
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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