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वक्रोक्तिजीवितम्
की रक्षा की अपेक्षा न मुनि ही को और न हमें ही, दोनों ( में से किसी ) को भी न होती ( अर्थात् यदि मैं यहाँ गुरु वशिष्ठ की आज्ञा रूप अपने इस गाय के रक्षा रूप, कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ तो केवल विवश होकर ही क्योंकि मैं इस गाय का बदला नहीं चुका सकता हूँ, अन्यथा कर्तव्य का पालन न करता ) इस प्रकार के तात्पर्य में ( इस श्लोक के ) पर्यवसित होने से ( राजा का ) यह कथन अत्यन्त ही अनौचित्य से युक्त है ।
अथवा जैसे ( प्रबन्ध काव्य के किसी एक प्रकरण के अनौचित्य का दूसरा उदाहरण ( कुमार सम्भव में - तीनों लोकों को आक्रान्त करने में तत्पर तारक नामक ( राक्षस रूप ) शत्रु को जीतने की इच्छा ( से ब्रह्मा के कथनानुसार कि यदि किसी प्रकार से शङ्कर का विवाह हो जाय तो उनके वीर्य से उत्पन्न उनका पुत्र ही उस राक्षस का वध करने में समर्थ होगा । अतः शङ्कर की समाधि भङ्ग करने के लिये इन्द्र के द्वारा कामदेव के बुलाये जाने ) के समय कामदेव इन्द्र से इस प्रकार कहता है कि
कामेकपत्रीं तदुःखशीलां लोलं मनश्चारुतया प्रविष्टाम् ! नितम्बिनीमिच्छसि मुक्तलज्जां कण्ठे स्वयंग्राहनिषक्तवाहुम् ।। १२५ ।।
पतिव्रत धर्म के कारण कठोर स्वभाव वाली ( पातिव्रत के पालन में दृढ सङ्कल्प, लेकिन ) सौन्दर्य के कारण ( आपके ) लालची चित्त में समाई हुई, किस ( प्रशस्त नितम्ब वाली ) सुन्दरी को ( हमारे प्रभाव से ) लज्जाहीन बनाकर स्वयं आपके कण्ठ में डाले हुए बाहुपाश वाली ( बनाना ) चाहते हैं ।। १२५ ।।
पर्यालोच्यते,
इत्यविनयानुष्ठाननिष्ठं त्रिविष्टपाधिपत्यप्रतिष्ठितस्यापि तथाविधाभिप्रायानुवर्तनपरत्वेनाभिधीयमानमनौचित्यमावहति । एतच्चैतस्यैव कवेः सहज सौकुमार्यमुद्रितभूक्तिपरिस्पन्दसौन्दर्यस्य न पुनरन्येषामाहार्य मात्रकाव्यकरणकौशलश्लाघिनाम् । सौभाग्यमपि पदवाक्यप्रकरणप्रबन्धानां प्रत्येकमनेकाकारकमनीयकारणकलापकलितरामणीयकानां किमपि सहृदयहृदयसंवेद्यं काव्यैकजीवितमलौकिक चमत्कारकारि संवलितानेकरसास्वादसुन्दरं व्यापकत्वेन काव्यस्य गुणान्तरं परिस्फुरतीत्यलमतिप्रसङ्गेन ।
सकलावयव
( इस प्रकार कामदेव का ) स्वर्ग के आधिपत्य पर प्रतिष्ठित भी ( इन्द्र ) का उस प्रकार के ( परस्त्री के सतीत्व का अपहरण रूप ) अभिप्राय के अनुरोध रूप में कहा जाता हुआ, उच्छृङ्खलता के आचरण से सम्बन्धित यह कथन अत्यन्त अनौचित्य से पूर्ण है । और यह भी स्वाभाविक सुकुमारता