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प्रथमोन्मेषः
( हे राजन् ! यदि आप ) एक ही धेनुवाले, ( अतएव उसके विनाश के ) अपराध के कारण अत्यन्त ही क्रुद्ध ( साक्षात् ) अग्निस्वरूप गुरु ( वशिष्ठ ) से डरते हैं (कि गुरु जी क्रुद्व हो जायेंगे)। अतः उन्हें प्रसन्न रखने के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देना चाहते हैं, तो यह ठीक नहीं क्योंकि ( एक गाय के बदले में ) घटों के समान थनों ( स्तनों) वाली करोड़ों गायें प्रदान कर उनका क्रोध आप ( बड़ी सरलता से ) दूर कर सकते हैं । ( अर्थात् उन्हें यदि एक गाय के बदले करोड़ों गायें मिल जायेंगी तो उनका गुस्सा अपने आप रफूचक्कर हो जायगा ) ॥ १२३ ॥ ___इति सिंहस्याभिधातुमुचितमेव, राजोपहासपरत्वेनाभिधीयमानत्वात् । राज्ञः पुनरस्य निजयशःपरिरक्षणपरत्वेन तृणवल्लघुवृत्तयः प्राणाः प्रतिगासन्ते । तस्यैतत्पूर्वपक्षोत्तरत्वेन___ ऐसा सिंह का कथन तो राजा का मजाक उड़ाने के लिये कहे जाने के औचित्य युक्त ही है । और फिर ( इस सिंह के कथन से ) इस राजा दिलीप के तुच्छ वृत्ति वाले प्राण अपने यश की भलीभांति रक्षा करने में तत्पर होने से तृण के समान (तुच्छ ) प्रतीत होते हैं । ( अतः यह सिंह का कथन
औचित्य युक्त है ) । इस प्रश्न के उत्तर रूप में ( कहा गया ) उस ( राजा दिलीप ) का यह ( कथन )
कथं च शक्यानुनयो महर्षिविंश्राणनादन्यपयस्विनीनाम् । इमां तनूजां सुरभेरवेहि रुद्गौजसा तु प्रहृतं त्वयास्याम् ॥ १२४ ॥
(कि इस नन्दिनी गाय के बदले में ) दूसरी (करोड़ों) दुधारी (गायों) को प्रदान करने से ( भी ) महर्षि वशिष्ठ का क्रोध रहित (शक्यानुनय) कैसे होंगे । क्योंकि इस ( नन्दिनी गाय ) को तुम सुरभि ( कामधेनु ) की तनया समझो। ( यह उससे कुछ भी कम नहीं है अर्थात् कामनाओं की पूर्ति यह भी करने वाली है । अतः अन्य गायें इसकी समानता में कैसे आ सकती हैं और ( फिर ) तुमने ( भी) इम ( गाय ) पर ( अपने प्रभाव से नहीं बल्कि ) ... भगवान् शङ्कर के तेज से प्रहार किया है ॥ १२४ ।। - इत्यन्यासां गवां तत्प्रतिवस्तुप्रदानयोग्यता यदि कदाचित्सम्भवति ततस्तस्य मुनेर्मम चोभयोरप्येतज्जीवितपरिक्षणनैरपेक्ष्यमुपपन्नमिति तात्पर्यवसानादत्यन्तमनौचित्ययुक्तेयमुक्तिः । __ यथा च कुमारसम्भवे त्रैलोक्याक्रान्तिप्रवणपराक्रमस्य तारकास्यस्य रिपोर्जिगीपावसरे सुरपतिर्मन्मथेनाधीयते
( इस राजा के कथन का ) यदि कहीं अन्य गायों में उस ( नन्दिनी) के साथ विनिमय की योग्यता सम्भव होती तो इस (नन्दिनी गाय) के जीवन
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