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वक्रोक्तिजीवितम् ___अत्र रघुपतेरनर्घमहापुरुषसम्पदुपेतत्वेन वर्ण्यमानस्य 'कैकेयि कामा फलितास्तव' इत्येवंविधतुच्छतरपदार्थसंस्मरणं तदभिधानं चात्यन्तमनौचित्यमावहति ।
प्रबन्धस्यापि कचित्प्रकरणैकदेशेऽप्यौचित्यविरहादेकदेशदाहदूषितदग्धपटप्रायता प्रसज्यते । यथा-रघुवंशे एवं दिलीप सिंहसंवादावसरे
महापुरुषों की अमूल्य निधियों से युक्त रूप में वर्णित किये जाने वाले रघुराज ( रामचन्द्र ) का 'कैकेयि ! तुम्हारा अभिलाष फलित हो गया' इस रूप के तुच्छ पदार्थ का सम्यक् स्मरण, और (केवल स्मरण ही नहीं अपितु) उसका कह भी जाना, अत्यधिक अनौचित्य को धारण करता है।
कहीं-कहीं प्रबन्ध भी प्रकरण के एक अंश में भी औचित्य के न विद्यमान रहने पर, एक भाग में जले हुए होने से दूषित (समस्त) जले हुए वस्त्र के समान (दूषित ) हो जाता है। ( अर्थात् जैसे किसी कपड़े का जलता तो एक ही अंश है लेकिन दूषित सारा का सारा कपड़ा हो जाता है । लोग कहते हैं कि कपड़ा जल गया न कि कपड़े का एक भाग । उसी प्रकार यदि किसी प्रबन्ध काव्य के किसी प्रकरण के एक भी अंश में दोष आ जाता है । औचित्य नहीं रहता, तो सारा का सारा प्रबन्ध दूषित कहा जाने लगता है। इसका उदाहरण जैसे ( कालिदास विरचित ) रघुवंश ( प्रबन्ध काव्य ) में ही राजा दिलीप तथा सिंह के संवाद ( रूप प्रकरण ) के समय
अथैक'नोरपराधचण्डाद्
गुरोः कृशानुप्रतिद्विभेषि । शक्योऽस्य मन्युभवतापि जेतुं ।
गाः कोटिशः स्पर्शयता घटोध्नीः ॥ १२३ ।। ( राजा दिलीप अपने गुरु वशिष्ठ की आज्ञा से पुत्र प्राप्ति हेतु 'नन्दिनी' धेनु की सेवा में तत्पर होते हैं। एक दिन वे उसे चराते चराते पर्वत की सुषमा देखने लगते हैं कि इतने में ही उस गाय का करुण क्रन्दन सुनाई देता है और दिलीप देखते हैं कि उस गाय के ऊपर एक सिंह आक्रमण किए है। दिलीप उस सिंह को मारने के लिये तुरन्त बाण निकालने के लिए ज्यों ही तरकश में हाथ डालते हैं, उनका हाथ फंस जाता है, वे विवश हो जाते हैं । विवश होकर सिंह से उस गाय को छोड़ देने के लिए नाना प्रकार से अनुनय करते हैं पर सिंह जब किसी भी तरह उसे छोड़ने को तैयार नहीं होता तो उस गाय के बदले अपना शरीर उसे देने के लिये तैयार हो जाते हैं । इसी बात पर सिंह दिलीप से कहता है कि )