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प्रथमोन्मेषः
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( सुकुमार विचित्र एवं मध्यम मार्गों के चार चार, माधुर्य, प्रसाद, लावण्य एवं आभिजात्य गुणों का प्रतिपादन करने से ) अनन्तर ( साधारण गुणों के रूप में ) कहे गये दोनों (औचित्य एवं सौभाग्य ) गुणों का विषय प्रदर्शित करते हैं -
__ मैं अलङ्कारादि से अत्यन्त शोभित ( उज्ज्वल ) दोनों (सौभाग्य एवं औचित्य नामक ) गुण ( सुकुमार, विचित्र एवं मध्यम ) तीनों ही मार्गों में पद, वाक्य एवं प्रबन्धों ( अर्थात् समस्त काव्य के अवयवों ) में व्याप्त होकर स्थित रहते हैं ।। ५७ ॥
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___ एतद् गुणद्वितयमौचित्यसौभाग्याभिधानम् उज्ज्वलमतीवभ्राजिष्णु-. पदवाक्यप्रबन्धानां त्रयाणामपि व्यापकत्वेन वर्तते सकलावयवव्याप्त्यावतिष्ठते । क्वेत्याह-त्रिष्ववि मार्गेषु सुकुमारविचित्रमध्यमाख्येषु । तत्र पदस्य तावदौचित्यम्-बहुविधभेदभिन्नो वक्रभावः, स्वभावस्याञ्जसेन प्रकारेण परिपोषणमेव वक्रतायाः परं रहस्यम्, उचिताभिधानजीवितत्वाद् । वाक्यस्याप्येकदेशेऽप्यौचित्यविरहात्तद्विदाह्लादकारित्वहानिः । यथा रघुवंशे
यह औचित्य और सौभाग्य सञक गुणद्वितय, उज्ज्वल, अर्थात् ( अलङ्कारादि से युक्त होने के कारण ) अत्यन्त ही सुशोभित, पद वाक्य एवं प्रबन्ध तीनों के ही व्यापक रूप से विद्यमान रहता है अर्थात् ( काव्य के ) समस्त अङ्गों में व्याप्त होकर स्थित रहता है। कहाँ ( व्याप्त रहता है) इसे बताते हैं-सुकुमार, विचित्र एवं मध्यम सज्ञा वाले तीनों ही ( काव्य के ) मार्गों में । उस प्रसङ्ग में पद का औचित्य तो यह है-वक्रता नाना प्रकार के भेदों के कारण भिन्न भिन्न है, स्वभाव का त्वरितविधि से संस्फुरण और परिपाक ही वक्रता का वास्तविक रहस्य है क्योंकि उसका औचित्यपूर्ण प्रकाशन ही प्राण है । सम्पूर्ण वाक्य के एक अंश में भी औचित्य का अभाव होने पर सहृदयाह्लादकारिता की हानि होने लगती है-जैसे रघुवंश ( महाकाव्य ) में
पुरं निषादाधिपतेस्तदेतद्यस्मिन्मया मौलिमणि विहाय ।। जटासु बद्धास्वरुदत्सुमन्त्रः कैकेयि कामाः फलितास्तवेति ॥ १२२ ॥
यह निषादों के स्वामी ( गुहराज ) का वह नगर है जिसमें मेरे मौलि. मणियों का त्याग कर जटायें बढ़ा लेने पर (सारथि) सुमन्त्र ने-'हे कैकेयि ! (अब ) तुम्हारा अभिलाष फलित हो गया' ऐसा कहकर आंसू बहाया था ।। १२२ ॥