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प्रथमोन्मेष:
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से मुद्रित सूक्तियों के विलासों के सौन्दर्य वाले इसी ( श्रेष्ठ ) कवि ( कालिदास ) की सूक्ष्म आलोचना की जा रही है, न कि केवल ( व्युत्पत्ति एवं अभ्यास के बलपर ) बनावटी ( अस्वाभाविक ) काव्य - निर्माण की कुशलता से प्रशंसा के पात्र बनने वाले अन्य ( ऐरे गैरे पंचकल्यानी ) कवियों की सूक्ष्म आलोचना की जा रही है (क्योंकि उनमें तो इतनी सूक्ष्मता से पर्यवेक्षण के विना ही दोष मिल जायेंगे ) ।
नाना प्रकार के मनोहर कारण समुदाय से उत्पन्न सौन्दर्य वाले, पद, वाक्य, प्रकरण एवं प्रबन्धों में हर एक का ( अलग-अलग केवल ) सहृदयों के हृदयों के द्वारा अनुभव किया जाने वाला काव्य का केवल प्राणभूत, अलौकिक आनन्द को प्रदान करनेवाला ( काव्य में कवि द्वारा ) सन्निविष्ट अनेक ( शृङ्गारादि ) रसों ( की चर्वणा ) के आस्वाद से रमणीय कोई ( अनिर्वचनीय ) सौभाग्य ( नाम का ) दूसरा गुण भी काव्य के समस्त अङ्गों में व्यापक रूप से प्रकाशित होता है । ( अतः सहृदय ही उसका अनुभव कर सकते हैं ।) इसलिये अति प्रसङ्ग ( अर्थात् इसके अधिक विवेचन से कोई लाभ नहीं है ।
इदानीमे तदुपसंहृत्यान्यदवतारयति -
मार्गाणां त्रितयं तदेतद सकृत्प्राप्तव्यपर्युत्सुकः
क्षुण्णं कैरपि यत्र कामपि भुवं प्राप्य प्रसिद्धि र्गताः । सर्वे स्वैरविहारहारि कवयो यास्यन्ति येनाधुना तस्मिन्कोऽपि स साधु सुन्दरपदन्यासक्रमः कथ्यते ॥ ५८ ॥
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इस प्रकार ( अब तक प्रथम उन्मेष में मार्गों के स्वरूप एवं उनके गुणों का विवेचन कर ) अब इस ( विवेचन ) का उपसंहार करके ( द्वितीय उन्मेष में विवेचित किये जाने वाले वर्णविन्यास क्रम आदि ) दूसरे ( प्रकरण ) को अवतरित करते हैं
प्रयोजन विशेष की प्राप्ति के लिए उत्कण्ठित कुछ महाकवियों के द्वारा मार्गों की यह त्रयी बार-बार संसेवित होती रही है । उनमें से कुछ भाग्यशाली महाकवियों ने अद्भुत सफलता प्राप्त करके ख्याति अर्जित की है । भविष्य में भी सभी कविगण स्वेच्छापूर्वक विहार के कारण रमणीय ( मार्गत्रयी ) पर चलेंगे । इसी हेतु अब इस मार्गत्रयी के विषय में सुन्दर पदों के सन्निवेश की अद्भुत परम्परा का सम्यग् विश्लेषण किया जायगा ॥ ५८ ॥