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वक्रोक्तिजीवितम् वह ( कवि की ) प्रौढि से विरचित आभिजात्य ( नामक गुण ) हृदय को आनन्दित करने वाला होता है । ४८ ॥ ___ अत्रास्मिन् तदाभिजात्यं यन्नातिकोमलच्छायं नात्यन्तममृणकान्तिनातिकाठिन्यमुद्वहन्नातिकठोरतां धारयन् प्रौढिनिर्मितं सफलकविकौशलसम्पादितं सन्मनोहारि हृदयरक्षकं भवतीत्यर्थः । यथा
यहाँ अर्थात् इस ( विचित्र मार्ग ) में वह अभिजात्य ( नाम का गुण होता है ) जो न अधिक कोमल छाया वाला अर्थात् न तो अत्यधिक स्निग्ध कान्ति वाला ( और ) न अधिक कठिनता को वहन करता हुआ अर्थात् न ही अधिक कठोरता को धारण करता हुआ ( होता है ) वह प्रौढि से निर्मित वर्षात् कवि की समग्र कुशलता से सम्पादित हुआ मनोहारि अर्थात् हृदय को आनन्दित करनेवाला होता है, यह अर्थ हुआ। जैसे-( कोई सखी नायिका से पूछती है कि
अधिकरतलतल्पं कल्पितस्वापलीला- . परिमलननिमीलत्पाण्डिमा गण्डपाली। सुतनु कथय कस्य व्यञ्जयत्यजसैव
स्मरनरपतिकेलीयौवराज्याभिषेकम् ।। १०६ ॥ हे सुन्दरि ! (यह तो) बताओ कि-करतलरूपी पर्यङ्क पर शयन-लीला के कारण होने वाले ( करतल तथा कपोल के ) दृढ संयोग से तिरोहित होती हुई पाण्डुता से युक्त ( अर्थात् रक्तवर्ण तुम्हारी यह ) कपोलस्थली सहसा ही कामदेवरूपी नरपति की क्रीडाओं के यौवराज्य पद पर किस (धन्य युवक ) के अभिषेक को व्यक्त कर रही है ॥ १०६ ॥
टिप्पणी-इस पद्य में कवि ने न तो अत्यधिक कठोर और न अत्यन्त कोमल ही पदावली का प्रयोग किया है। साथ ही कवि-प्रतिभा की प्रौढ़ि इस श्लोक से भलीभांति व्यक्त हो रही है। अतः यहाँ आभिजात्य गुण स्वीकार किया जायगा।
एवं सुकुमारविहितानामेव गुणानां:विचित्रे कश्चिदतिशयः सम्पाद्यत इति बोडव्यम् ____इस प्रकार सुकुमार ( मार्ग ) में कथित ( माधुर्य, प्रसाद, लावण्य एवं आभिजात्य ) गुण (ही) विचित्र मार्ग में किसी ( अपूर्व ) अतिशय से सम्पन्न कर दिये जाये हैं। ऐसा समझना चाहिए। (और जैसा कि ) यह अन्तरश्लोक (भी) है कि