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प्रथमोन्मेषः
प्रान्तं हन्त पुलिन्दसुन्दर कर स्पर्शक्षमं लक्ष्यते । तत् पल्लीपतिपुत्रि कुञ्जरकुलं कुम्भाभयाभ्यर्थनादीनं त्वामनुनाथते कुचयुगं पत्रांशुकैर्मा पिधाः ।। १०७ ।।
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अथवा जैसे ( इसी का दूसरा उदाहरण ) -
हे पल्लीपति ( छोटे से ग्राम के स्वामी ) की पुत्रि ! अधपके तेन्दू फल के समान श्याम मध्यभागवाला तथा कुछ कुछ पीतवर्ण तट प्रदेश वाला ( तुम्हारा ) यह स्तनद्वन्द्व शबर के सुन्दर करों के स्पर्शयोग्य ( मर्दन करने के लिये उपयुक्त ) दिखाई पड़ता है । इसलिये ( अपने ) गण्डस्थल की रक्षा ( अभय ) की प्रार्थना से कातर (यह ) हाथियों का समूह तुमसे याचना करता है कि अपने इस ( स्तनयुगल ) को पत्तों से मत ढको । ( जिससे यह शबर तुम्हारे कुचों की ओर आकृष्ट होकर हम हाथियों के गण्डस्थल पर प्रहार करने से विमुख हो जायें ) ।। १०७ ॥
टिप्पणी - इस पद्य में यद्यपि 'पिघा' को छोड़कर अन्य किसी अलुप्तविसर्गान्ति पद का प्रयोग नहीं सुआ है । फिर भी सभी पद आपस में अच्छी तरह से संश्लिष्ट हैं । एवं 'एतन्मन्दविपक्व तिन्दुकफलश्यामो, रप्रान्तं, हन्त, पुलिन्द सुन्दरकरस्पर्शक्षमं लक्ष्यते । इत्यादि सभी पदों में संयोग के पूर्व ह्रस्व वर्णों के प्रयोग से श्लोक में एक अपूर्व ही चमत्कार या गया है। जिससे लावण्य गुण पूर्ण परिपोष को प्राप्त हो रहा है ।
यथा वा
' हंसानां निनदेषु' इति ॥ १०८ ॥
अथवा जैसे ( इसका तीसरा उदाहरण पूर्वोदाहृत उदाहरण संख्या ७३ का ) हंसानां निनदेषु । इत्यादि पद ॥ १०८ ॥
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( इसका अर्थ उदाहरण संख्या ७३ पर देखें तथा लक्षण को पूर्वोदाहृत दोनों पद्यों के आधार पर स्वयं घटित कर लें ) ।
एवं लावण्यमभिधायाभिजात्यमभिधीयते - यन्नातिकोमलच्छायं नातिकाठिन्यमुद्वहत् । आभिजात्यं मनोहारि तदत्र प्रौढिनिर्मितम् ॥ ४८ ॥
इस प्रकार ( विचित्र मार्ग के तीसरे गुण ) लावण्य को बताकर ( अब चतुर्थ गुण ) आभिजात्य को बताते हैं
यहाँ ( इस विचित्र मार्ग में ) जो न तो बहुत अधिक कोमल कान्ति ( वाला होता है) और न अधिक कठिनता को ही धारण करता ( है )