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वक्रोक्तिजीवितम्
यहाँ अर्थात् इस ( विचित्र मार्ग ) में इस प्रकार के पदों ( के प्रयोग ) से ( विचित्र मार्ग का) लावण्य ( गुण ) अतिशय युक्त होता है अर्थात् भलीभांft पुष्ट होता है । कैसे ( पदों के प्रयोग से ) परस्पर एक दूसरे से मिले हुए संश्लिष्ट ( पदों से ) । और कैसे ( पदों के प्रयोग से ) न लुप्त हुए विसर्गों के अन्त वाले । नहीं लुप्त हुए विसर्गों वाले अर्थात् सुनाई पड़ते हुए विसर्जनीयों वाले अन्त हैं जिनके वे हुए तथोक्त ( न लुप्त हुए विसर्गो के अन्त वाले ) उन ( पदों से ) । ह्रस्व अर्थात् लघु ( पदों ) से । संयोग के पहले ( ह्रस्व पदों से ) | ( लावण्य गुण ) परिपुष्ट होता है । यह ( वाक्य के साथ क्रिया का ) सम्बन्ध है । तो इसका यहाँ अभिप्राय यह हुआ कि - पहले ( सुकुमार मार्ग के गुणों का प्रतिपादन करते समय ३२ वीं कारिका में ) कहे गए लक्षण वाला लावण्य ( सुकुमार मार्ग का गुण विद्यमान होते हुए इस ( प्रकार के प्रयोगों से इस गुण के युक्त होने के कारण इस ) से भिन्न हो जाता है । जैसे
श्वासोत्कम्पतरङ्गिण स्तनतटे
घौताञ्जनश्यामलाः
कीर्यन्ते कणशः कृशानि किममी बाष्पाम्भसां बिन्दवः | काकुञ्चितकण्ठरोधकुटिला:
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कर्णामृतस्यन्दिनो
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हुङ्काराः कलपञ्चमप्रणयिनस्त्रुट्यन्ति निर्यान्ति च ॥ १०६ ॥ हे कृशाङ्ग, ( श्रम के कारण ) तेज साँसों के चलने से उभर आने के कारण हिलते हुए वक्षःस्थल पर ( आंखों में लगे ) आंजन को धोने के कारण काली पड़ गई ये अश्रुजल की बूंदों की टूक टूक करके क्यों दुलकाये दे रही हो ? और क्यों भला ये कानों में सुधा टपकाने वाली मधुर पञ्चम ( स्वर ) की तरह प्यारी लगने वाली हूँ हूँ की आवाजें मुड़े हुए गले के भर आने के कारण टेढ़ी पड़कर टूट टूट जाती हैं और निकल पड़ती हैं ॥ १०६ ॥ टिप्पणी- यहाँ इस पद्य में 'धोताञ्जनश्यामलाः', 'कणशः, ' ' बिन्दवः', - कुटिला : ' एवं 'हुङ्काराः' 'ऐसे पदों का प्रयोग किया गया है, जिनके अन्त में विसर्गों का लोप नहीं हुआ है । तथा कम्प, तरङ्गिणिस्तनतटे,- -न श्यामलाः, कीर्यते, बिन्दवः... कुञ्चित, कण्ठ, तस्यन्दिनो एवं पंचमप्रणयिनस्त्रयन्ति, इत्यादि पदों में संयोग के पूर्व लघु वर्ण का प्रयोग हुआ है । जैसे 'कम्प' में 'क' का 'तरङ्गिणि' में 'र' का आदि आदि । तथा सभी पद परस्पर एक दूसरे से संश्लिष्ट होकर विचित्र मार्ग के लावण्य गुण का परिपोष
करते हैं ।
यथा वा-
एतन्मन्दविपक्कतिन्दुकफलश्यामोदरापाण्डुर