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प्रथमोन्मेषः
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निबद्ध अर्थात सन्निविष्ट किए जाते हैं । किस प्रकार से पदों के समान अर्थात् पदों की तरह परस्पर. अन्वित ढङ्ग से, ( निबद्ध किए जाते हैं 1 यह (विचित्र मार्ग के ) प्रसाद ( गुण ) का कोई अपूर्व दूसरा ही क्रम अर्थात् वाक्यविन्यास की शोभा ( को उत्पन्न करने ) का प्रकार है । जैसे— नामाप्यन्तः इति ॥। १०५ ।।
( पूर्वोदाहृत उदाहरण संख्या ९१ का ) नामाप्यन्यतरोः इत्यादि
पद ।। १०५ ।
टिप्पणी- यहाँ ग्रन्थकार ने जिस पद को प्रसाद गुण के उदाहरण रूप में उद्धृत किया है वह यह है
नानाप्यन्यतरोर्निमीलितमभूत्तत्तावदुन्मीलितं
प्रस्थाने स्खलतः स्ववत्र्त्मनि विधेरन्यद्गृहीतः करः । लोकश्चायमदृष्ट दर्शन कृताद् दुग्वैशसादुद्धृतो
युक्तं काष्टिक लूनवान् यदसि तामाम्रालिमाकालिकीम् ॥ ६१ ॥
इसका अर्थ उदाहरण संख्या ६१ पर देखें । यहाँ कवि ने एक ही वाक्य. रूप श्लोक में 'निमीलितमभूत्', 'तावदुन्मीलितं', 'गृहीतः करः', 'लोकः उद्धृतः ' इत्यादि अन्य अवान्तर वाक्यों का पदों की भांति प्रयोग किया । अतः यहाँ प्रसाद गुण स्वीकार किया जायगा ।
प्रसादमभिधाय लावण्यं लक्षयतिअत्रा लुप्तविसर्गान्तैः पदैः प्रोतैः परस्परम् । संयोगपूर्वैश्व लावण्यमतिरिच्यते ॥ ४७ ॥
( इस प्रकार विचित्र मार्ग के माधुर्य गुण तथा ) प्रसाद ( गुण के दो प्रकार ) बता कर अब ( तीसरे गुण ) लावण्य को लक्षित करते हैं—
यहाँ ( इस विचित्र मार्ग में ) परस्पर संश्लिष्ट, विसर्गो से युक्त अन्त वाले संयोग से पूर्व ह्रस्व पदों ( के प्रयोग ) से लावण्य ( गुण ) अतिशय युक्त हो जाता है ॥ ४७ ॥
अत्रास्मिन्नेवंविधैः पदैर्लावण्यमतिरिच्यते परिपोषं प्राप्नोति । कीदृशैः - परस्परमन्योन्यं प्रोतैः संश्लेषं नीतेः । अन्यच कीदृशैःअलुप्तविसर्गान्तः, अलुप्तविसर्गाः श्रूयमाणविसर्जनीया अन्ता येषां तानि तथोक्तानि तैः । ह्रस्वैश्च लघुभिः । संयोगेभ्यः पूर्वैः । अतिरिच्यते इति सम्बन्धः । तदिदमत्र तात्पर्यम् - पूर्वोक्तलक्षणं लावण्यं विद्यमानमनेनातिरिक्ततां नीयते । यथा