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प्रथमोन्मेषः
आभिजात्यप्रभृतयः पूर्वमार्गोदिता गुणाः । अत्रातिशयमायान्ति जनिताहार्यसम्पदः ।। ११० ।।
इत्यन्तरश्लोकः ।
पहले ( सुकुमार) मार्ग में प्रतिपादित आभिजात्य आदि ( अर्थात् माधुर्य, प्रासाद, लावण्य एवं आभिजात्य चारों ही ) गुण, यहाँ ( इस विचित्र मार्ग में कवि की व्युत्पत्यादिजन्य ) आचार्य - सम्पत्ति की सृष्टि कर ( किसी अलौकिक ) अतिशय को प्राप्त होते हैं ।। ११० ॥
एवं विचित्रमभिधाय मध्यममुपक्रमते - वैचित्र्यं सौकुमार्यं च यत्र सङ्कीर्णतां गते । भ्राजेते सहजाहार्यशोभातिशयशालिनी ॥ ४९ ॥
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इस प्रकार ( पहले सुकुमार मार्ग का विवेचन कर तदनन्तर ( विचिन ( मार्ग ) को बताकर ( अब ) मध्यम ( मार्ग के विवेचन ) का आरम्भ करते हैं
जहाँ ( जिस मार्ग में ) सहज ( अर्थात् कवि प्रतिभाजन्य ) तथा आहार्य ( अर्थात् कवि की व्युत्पत्यादि जन्य ) कान्ति के उत्कर्ष से शोभित होने वाली सुकुमारता एवं विचित्रता सङ्कीर्ण होकर ( एक दूसरे से मिश्रित होकर ) शोभित होती हैं ॥ ४६ ॥
माधुर्यादिगुणग्रामो वृत्तिमाश्रित्य मध्यमाम् ।
यत्र कामपि पुष्णाति बन्धच्छायातिरिक्तताम् ॥ ५० ॥
( तथा ) जहाँ ( जिस मार्ग में ) माधुर्य ( प्रसाद, लावण्य एवं आभिजात्य ) आदि गुणों का समुदाय मध्यम ( अर्थात् सुकुमार तथा विचित्र दोनों मार्गों की कान्ति से युक्त ) वृत्ति का आश्रयण कर संघटना की शोभा के आधिपत्य का पोषण करता है ।। ५० ॥
मार्गोsसो मध्यमो नाम नानारुचिमनोहरः ।
स्पर्धया यत्र वर्तन्ते मार्गद्वितयसम्पदः ॥ ५१ ॥
( तथा ) जहाँ ( जिस मार्ग में सुकुमार तथा विचित्र ) दोनों मार्गों की - सम्पत्ति (परस्पर) स्पर्धा से समान रूप में ) विद्यमान रहती हैं; ( ऐसा ) यह विभिन्न रुचियों वाले ( सहृदय आदि ) के लिए मनोहर मध्यम - नाम का मार्ग है ॥ ५१ ॥