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वक्रोक्तिजीवितम् एवं सुकुमारस्य लक्षणमभिधाय विचित्रं लक्षयतिप्रतिभाप्रथमोद्भेदसमये यत्र वक्रता ।
शब्दाभिधेयययोरन्तः स्फुरतीव विभाव्यते ॥ ३४ ॥ इस प्रकार सुकुमार-मार्ग का लक्षण करने के उपरान्त विचित्र मार्ग का लक्षण करते हैं
जहाँ कवि की शक्ति की प्रथम ही उल्लेख के समय शब्द और अर्थ के अन्दर ( उक्तिवैचित्र्य रूप ) वक्रता स्फुरित होती हुई सी प्रकाशित होती है ॥ ३४ ॥
अलंकारस्य कवयो यत्रालंकरणान्तरम् । असंतुष्टा निबध्नन्ति हारादेर्मणिबन्धवत् ॥ ३५ ॥ ( तथा ) जहाँ कवि लोग एक ही अलंकार के प्रयोग से असन्तुष्ट होकर हार इत्यादि के मणि-विन्यास के समान एक अलंकार के लिए दूसरे अलंकार की रचना करते हैं ।। ३५ ॥
रत्नरश्मिच्छटोत्सेकभासुरैषणैर्यथा कान्ताशरीरमाच्छाद्य भूषायै परिकल्प्यते ॥ ३६ ॥ यत्र तद्वदलंकारैर्धाजमानैनिजात्मना । स्वशोभातिशयान्तःस्थमंलंकार्य प्रकाश्यते ॥ ३७॥
( एवम् ) जिस प्रकार से रत्नों की किरणों की शोभा के उल्लास से देदीप्यमान आभूषणों के द्वारा रमणी के शरीर को ढंककर अलंकृत करते हैं उसी प्रकार उज्ज्वल उपमा आदि अलंकार जहां अपने स्वरूप के द्वारा अपने शोभातिशय के अन्तर्गत विद्यमान अलंकार्य ( स्वभाव ) को प्रकाशित करते हैं ॥ ३६-३७ ॥
यदप्यनूतनोल्लेखं वस्तु यत्र तदप्यलम् ।
उक्तिवैचित्र्यमात्रेण काष्ठां कामपि नीयते ॥ ३८॥ ( तथा ) जहाँ जो ( वाच्य रूप ) वस्तु अभिनव ढंग से उल्लिखित नहीं होती ( अर्थात् कवि किसी प्राचीन वस्तु का ही वर्णन करता है ) वह . भी उक्ति-वैचित्र्यमात्र से पर्याप्त किसी अपूर्व सौन्दर्य की कोटि पर पहुंचा दी जाती है ॥ ३८ ॥