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प्रथमोन्मेषः
यत्रान्यथाभवत् सर्वमन्यथैव यथारुचि । भाव्यते प्रतिभोल्लेखमहत्त्वेन महाकवेः ॥ ३९ ॥
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( तथा ) जहाँ अन्य ढंग से विद्यमान सम्पूर्ण वस्तु महाकवि की प्रतिभा के उन्मेष के अतिशय के कारण अपनी प्रतिभा के अनुरूप अन्य ढंग से ही वर्णित होकर शोभायुक्त हो जाती है ॥ ३६ ॥
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प्रतीयमानता यत्र वाक्यार्थस्य निबध्यते । वाच्यवाचकवृत्तिभ्यां व्यतिरिक्त यकस्यचित् ॥ ४० ॥
( एवं ) जहाँ शब्द और अर्थ की शक्तियों से भिन्न ( व्यङ्ग्य रूप ) किसी अनिर्वचनीय वाक्यार्थ की प्रतीयमानता ( अर्थात् गम्यमानया ) निबद्ध की जाती है ( अर्थात् — जहाँ पर वाक्यार्थं शब्द तथा अर्थ की शक्ति अभिधा के द्वारा न कहा जाकर व्यङ्ग्य रूप में ( व्यंजना शक्ति के द्वारा ) निबद्ध किया जाता है ) ।। ४० ॥
स्वभावः सरसाकूतो भावानां यत्र बध्यते । केनापि कमनीयेन वैचित्र्येणोपबृंहितः ॥ ४१ ॥
( तथा ) जहाँ किसी ( अलौकिक ) हृदयहारी वैचित्र्य से वृद्धि को प्राप्त कराया गया, पदार्थों का सरस अभिप्राययुक्त स्वभाव वर्णित होता है ॥४१॥ विचित्रो यत्र वक्रोक्तिवैचित्र्यं जीवितायते । परिस्फुरति यस्यान्तः सा काप्यतिशयाभिधा ॥ ४२ ॥ सोऽतिदुः सञ्चरो येन विदग्धकवयो गताः । खङ्गधारापथेनेव सुभटानां
मनोरथाः ॥ ४३ ॥
( तथा ) जहाँ वक्रोक्ति की विचित्रता प्राण के समान आचरण करती है जिसके भीतर कोई ( अलौकिक ) अतिशय की उक्ति उल्लसित होती है, वह अत्यन्त कठिनता से चलने योग्य विचित्र ( नामक मार्ग ) है, जिससे ( जिसका आश्रयण कर) चतुर कवि लोग बड़े-बड़े वीरों के तलवार की धारा के मार्ग से चलने वाले मनोरथों को भांति गुजरे हैं ( अर्थात् काव्य-रचना किए हैं ) ।। ४२-४३ ॥
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स विचित्राभिधानः पन्थाः कीदृक्- अतिदुः सञ्चरः यत्रातिदुःखेन संचरते । किं बहुना, येन विदग्धकवयः केचिदेव व्युत्पन्नाः केवलं गताः प्रयाताः, तदाश्रयेण काव्यानि चक्रुरित्यर्थः । कथम- खङ्ग