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प्रथमोन्मेषः
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कहा ? ( इस प्रश्न
क्योंकि इस दृष्टान्त
आपने केवल बन्ध-सौन्दर्य को ही लावण्य कैसे का उत्तर देते हुए कहते हैं कि ) यह कोई दोष नहीं है के द्वारा ( आनन्दवर्द्धन ) वाच्य वाचक रूप से प्रसिद्ध अवयवों से भिन्न प्रतीयमान ( वस्तु ) की सत्तामात्र का प्रतिपादन करते हैं न कि समस्त लोक के नेत्रों द्वारा जाने जा सकने योग्य ललना के लावण्य के साथ केवल सहृदयों के हृदयों द्वारा अनुभव किये जा सकने वाले प्रतीयमान अर्थ को समान किया जा सकता है । ( अर्थात् ललना का लावण्य सभी लोग जान सकते हैं जब कि प्रतीयमान अर्थ का अनुभव केवल सहृदय ही कर सकते हैं। तो भला वे दोनों समान कैसे हो सकते हैं ? अतः आनन्दवर्द्धन ने केवल प्रसिद्ध उपमा आदि वाच्य रूप अवयवों से भिन्न प्रतीयमान वस्तु की सत्तामात्र का निर्देश किया है ) ।
( लेकिन मैंने जो काव्य के लावण्य गुण की ललना के लावण्य के साथ समता स्थापित की है उसका यही कारण है कि )
तस्य बन्ध सौन्दर्यमेवान्युत्पन्नपदपदार्थानामपि श्रवणमात्रेणैव हृदयहारित्व स्पर्धया व्यपदिश्यते । प्रतीयमानं पुनः काव्यपरमार्थज्ञानामेवानुभवगोचरतां प्रतिपद्यते । यथा कामिनीनां किमपि सौभाग्यं तदुपभोगोचितानां नायकानामेव संवेद्यतामर्हति लावण्यं पुनस्तासामेव सत्कविगिरामिष सौन्दर्य सकललोकगोचरतामायातीत्युक्तमेवेत्यलमतिप्रसङ्गेन |
उस ( काव्य ) का बन्ध सौन्दर्य ही पद और पदार्थ को न जानने वाले ( सहृदयभिन्न ) लोगों के भी सुनने मात्र से मनोहर होने के कारण ( ललना लावण्य, जो कि समस्तलोक लोचनगोचर होता है उसकी ) स्पर्धा से कथन किया जा सकता है । ( अर्थात् जैसे ललना का लावण्य सभी प्राणियों को आनन्द प्रदान करता है चाहे वे सहृदय हों अथवा असहृदय हों उसी प्रकार काव्य का बन्ध सौन्दर्य भी सभी के हृदयों को केवल श्रवण मात्र से आनन्दित कर देता है, चाहे वे पद एवं पदार्थ को समझने वाले सहृदय हों अथवा पद-पदार्थ ज्ञान से हीन असहृदय ) । जब कि प्रतीयमान अर्थ केवल काव्य के परामर्श को जानने वाले । ( सहृदयों के ही अनुभव का विषय बनता है जैसे कामिनियों का कोई अनिवर्चनीय सौभाग्य ( सौन्दर्य ) उनका उपभोग करने योग्य नायकों का ही अनुभवगम्य होता है जब कि उन्हीं का लावण्य श्रेष्ठ कवियों की वाणी के सौन्दर्य की भाँति समस्त लोक के ज्ञान का विषय बनता है यह कहा ही जा चुका है अतः इस अतिप्रसंग की आवश्यकता नहीं ।