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प्रति शब्द निश्चय ही
अपने सजातीयों के साथ परस्पर स्पर्धा के कारण रमणीय होती है । सौन्दर्यश्लाघिता के प्रति होड़ वाक्य में प्रयुक्त शब्द की शब्दान्तर के साथ और अर्थ की अर्थान्तर के साथ होती है । स्पष्ट है कि जब सौन्दर्यश्लाघिता के अपने सजातीयों से और अर्थ अपने सजातियों से होड़ करेगा तो दोनों सम्मिलित होकर रमणीय काव्य की सृष्टि करेंगे । शब्द का अर्थान्तर के साथ साहित्य अथवा अर्थ का शब्दान्तर के साथ साहित्य मानना उचित नहीं क्योंकि ऐसा मानने पर कोई समन्वय हो सकना कठिन हो जायगा । स्पर्धा का निर्णय सजातीयों में ही किया जा सकता है भिन्न जातीयों में नहीं । इसी लिए कुन्तक कहते हैं - 'ननु वाचकस्य वाच्यान्तरेण वाच्यस्य वाचकान्तरेण कथं न साहित्यमिति चेत्, तन, क्रमव्युत्क्रमे प्रयोजनाभावादसमन्वयाच्च ।' ( पृ० ५८ )
केवल वक्रोक्ति ही अलङ्कार
का कहना है कि यद्यपि अलंकृत शब्द और अर्थ मिल कर काव्य होते हैं किन्तु जब हम अपोद्धार बुद्धि से अलङ्कार्य और अलङ्कार का विभाग कर लेते हैं तो उस दशा में - शब्द और अर्थ अलङ्कार्य होते हैं तथा उनका ( उन दोनों का ) अलङ्कार केवल एक वक्रोक्ति ही होती है । 'तयोः द्वित्वसङ्ख्याविशिष्टयोरप्यलंकृतिः पुनरेकैव यया द्वावप्यलङ क्रियेते' ( पृ० ४८ ) ।
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वक्रोक्ति का स्वरूप
वक्रोक्ति कहते किसे हैं ? 'शास्त्र अथवा लोकप्रसिद्ध उक्ति से अतिशायिनी विचित्र ही उक्ति को वक्रोक्ति कहते हैं - 'वक्रोक्तिः प्रसिद्धाभिधानव्यतिरेकिणी विचित्रैवाभिधा । यह वकोक्ति कैसी होती है ? - वैदग्ध्यभङ्गीभणितिस्वरूप होती है अर्थात् काव्यकुशलता की विच्छित्ति द्वारा किए गये कथन को वकोक्ति कहते हैं । और यह कथन शोभातिशयकारी होने के कारण एकमात्र अलङ्कार है - " शब्दार्थों पृथगवस्थितौ केनापि व्यतिरिकेनालङ्करणेन योज्येते किन्तु वक्रताबैचित्र्ययोगितयाभिधानमेवानयोरलङ्कारः तस्यैव शोभातिशय कारित्वात् '
- पृ० ४८
स्वभावोक्ति की अलङ्कारता का प्रत्याख्यान ( १।११-१५ )
इस प्रकार कुन्तक इस सिद्धान्त को स्थापित करके कि 'वकोक्ति ही एक मात्र अलङ्कार है' वे स्वभावोक्ति की अलङ्कारता का प्रत्याख्यान करते हैं । उनके तर्क इस प्रकार हैं