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( २४ ) १. स्वभावोक्ति का अर्थ हुआ कहा जाने वाला स्वभाव अर्थात् पदार्थ का धर्म और वही काव्यशरीर होता है अतः काव्यशरीर होने के कारण वह अलङ्कार्य होगा, अलङ्कार कैसे हो सकता है। यदि कोई यह कहे कि नहीं काव्यशरीर स्वभाव से भिन्न होता है, तो वह सम्भव नहीं क्योंकि स्वभाव शब्द की व्युत्पत्ति है-'भवतोऽस्माद् 'अभिधान प्रत्ययौ इति भावः, स्वस्य आत्मनो भावः स्वभावः ।' अर्थात् जिसके द्वारा (किसी का ) कथन और ज्ञान हो उसे भाव कहते हैं, अपने भाव को स्वभाव कहते हैं। निःस्वभाव वस्तु शब्द का विषय । बन ही नहीं सकती। अर्थात् किसी भी पदार्थ का स्वभाव ही उसे शब्द का विषय बनाता है। इसलिए सभी वाक्य. जो सार्थक होंगे निश्चित ही स्वभाव
युक्त होंगे। अतः सर्वत्र स्वभावोक्ति ही रहती है और यदि इसी शरीरभूता . स्वभावोक्ति को अलङ्कार मान लिया जाय तो एक गाड़ीवान की कही गई बात भी अलङ्कार युक्त होने लगेगी जो किसी भी आलङ्कारिक को अभीष्ट नहीं।
२. यदि शरीरभूत स्वभावोक्ति को ही अलङ्कार मान लिया जाय तो फिर अलङ्कार्य क्या होगा । अगर यह कहें कि वह अपने को ही अलकृत करती है तो यह एक गैरमुमकिन बात है क्योंकि शरीर ही अपने कन्धे पर स्वयं नहीं चढ़ पाता, अपने में ही क्रियाविरोध होने के कारण।
३. कुन्तक का तीसरा तर्क है कि यदि आप स्वभावोक्ति को अलङ्कार मान लेते हैं तो वह सर्वत्र ही विद्यमान रहेगा। ऐसी अवस्था में यदि वहाँ कोई अन्य अलङ्कार स्पष्ट रूप से आता है तो वहाँ संसृष्टि होगी और यदि अस्पष्ट रूप से आता है तो संकर होगा। इस प्रकार सर्वत्र संसृष्टि और संकर के अलावा अन्य अलङ्कार नहीं हो पायेंगे । और इस प्रकार अन्य अलङ्कारों का क्षेत्र ही समाप्त हो जायगा। अतः स्वभावोक्ति को अलकार मानना उचित नहीं, वह अलकार्य ही है।
४. इस प्रकार काव्य लक्षण के, शब्द अर्थ और उनके साहित्य का व्याख्यान करने के अनन्तर कुन्तक वक्रकावव्यापार को प्रस्तुत करते हैं ।
कविव्यापार की वक्रता के उन्होंने मुख्य रूप से छः भेद प्रस्तुत किए हैं और बताया है कि इन छः भेदों के बहुत से अवान्तर भेद हैं । वे छः प्रकार हैं१. वर्णविन्यासवक्रता
४. वाक्यवकता २. पद पूर्वार्द्धवकता
५. प्रकरणवक्रता ३. प्रत्ययाश्रयवक्रता .. ६. प्रबन्धवक्रता
प्राचार्य कुन्तक ने इन छहों प्रकार की वक्रताओं का सामान्य ढङ्ग से विश्लेषण प्रथम उन्मेष में किया है। तदनन्तर उनका विशेष विश्लेषण द्वितीय,