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( २२ ) ( ख ) साथ ही काव्य में शब्द और अर्थ का स्वरूप लोक में प्रसिद्ध वाच्यवाचक रूप में विद्यमान शब्द और अर्थ में स्वरूप से सर्वथा भिन्न होता है
शब्द-काव्य में वही शब्द होता है जो कि विवक्षित अर्थ के बहुत से वाचकों के विद्यमान रहने पर भी उस अर्थ का एकमात्र वाचक होता है । तात्पर्य यह है कि विवक्षित अर्थ को समर्पित करने में जिस प्रकार वह समर्थ हो वैसा समर्थ अन्य कोई दूसरा वाचक न हो।
शब्दो विवक्षितार्थंकवाचकोऽन्येषु सत्स्वपि ।
अर्थ-तथा काव्य में वही अर्थ अर्थ होता है जो कि अपने स्वभाव की ___ रमणीयता से सहृदयों को आह्लादित करने में समर्थ होता है:
_ 'अर्थः सहृदयाह्लादकारिस्टस्पन्दसुन्दरः' (१९) साहित्य ___शब्द और अर्थ के साहित्य की जैसी व्याख्या प्राचार्य कुन्तक ने प्रस्तुत की है, वैसा साहित्य का स्वरूप न तो किसी भी पूर्वाचार्य ने ही बताया था और न ही बाद में होने वाले अन्य प्राचार्यों ने, जिन्होंने साहित्य का विवेचन किया। वे कुन्तक ने इस साहित्यस्वरूप को उपेक्षित कर सकने में ही समर्थ हुए।
कुन्तक शब्द और अर्थ के वाच्यवाचक सम्बन्ध रूप साहित्य को साहित्य नहीं मानते क्योंकि ऐसा साहित्य काव्य के अतिरिक्त भी सर्वत्र विद्यमान रहता ही है । इसीलिए वे कहते हैं:
_ विशिष्टमेवेह साहित्यमभिप्रेतम् । (पृ० २५ ) और वह साहित्य है कैसा ? 'जहाँ पर वक्रता से विचित्र गुणों एवं अलंकारों की सम्पत्ति में परस्पर स्पर्धा ( होड़ ) लगी रहती है। और यह परस्पर स्पर्धा शब्द की दूसरे शब्द के साथ तथा अर्थ की दूसरे अर्थ के साथ ही अभिप्रेत है क्योंकि काव्यलक्षण की समाप्ति वाक्य में होती है, केवल एक ही शब्द और अर्थ में नहीं। इसीलिए कुन्तक ने कहा है:
'द्विवचनेनात्र वाच्यवाचकजातिद्वित्वमभिधीयते । व्यक्ति द्वित्वाभिधाने पुनरेकपदव्यवस्थितयोरपि काव्य स्यात्'-(पृ. २७ ) साहित्य का लक्षण कुन्तक के अनुसार इस प्रकार है:
साहित्यमनयोः शोभाशालितां प्रति काप्यसौ । __ अन्यूनानतिरिक्तत्वमनोहारिण्यवस्थितिः ॥ (१।१७ ) अर्थात् शब्द और अर्थ की उस स्थिति को हम साहित्य कहेंगे जो सौन्दर्यशालिता के प्रति अर्थात् सहृदयों को श्राहादित करने के विषय में दोनों की