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प्रयोजनत्वेन प्रसिद्धः सोऽप्यस्य काव्यामृत वर्वेण चमत्कारकलामात्रस्य न कामपि साम्यकलनां कर्तुमर्हतीति ।" ( पृ० १५ )
काव्यलक्षण
इस प्रकार काव्य का प्रयोजन बताने के बाद कुन्तक काव्यलक्षण प्रस्तुत करते हैं। उनका कथन है कि अलंकृत शब्द और अर्थ ही काव्य होते हैं । यदि हम काव्य में अलङ्कार्य और अलङ्कार का विवेचन अलग-अलग करते हैं तो वह केवल अरोद्धार बुद्धि के द्वारा । वस्तुतः अलङ्कार और अलङ्कार्य की अलग-अलग सत्ता ही काव्य में नहीं है
'तर सालङ्कारस्य काव्यता न पुनः काव्यस्यालङ्कार योग इति ।'
इसके अतिरिक्त काव्यलक्षण वे प्रथम उन्मेष की सातवीं कारिका में इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं
" तेनालंकृतस्य काव्यत्वमिति स्थितिः ।
शब्दार्थौ सहितौ वक्रकविव्यापारशालिनि ।
बन्धे व्यवस्थितौ काव्यं तद्विदाह्लादकारिणि ॥
अर्थात् सहृदयों को श्रह्लादित करने वाले, एवं वक्रकविव्यापार से सुशोभित होने वाले वाक्यविन्यास में साहित्ययुक्त शब्द और अर्थ काव्य होते हैं ।
वस्तुतः कुन्तकका सम्पूर्ण ग्रन्थ इसी काव्यलक्षण की व्याख्या को प्रस्तुत करता है । इस काव्यलक्षण में आने वाले तत्त्व जिनका उन्होंने व्याख्यान किया है वे हैं
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१. शब्द और अर्थ
२. साहित्य
३.
वककविव्यापार
४. बन्ध और
५. तद्विदाह्लादकारित्व
१. ( क ) कुन्तक के अनुसार शब्द और अर्थ दोनों मिल कर काव्य होते हैं, केवल रमणीयता विशिष्ट शब्द अथवा केवल चारुताविशिष्ट अर्थ काव्य नहीं होता। उनका कहना है
'तस्मात् स्थितमेतत् - - न शब्दस्यैव रमणीयता विशिष्टस्य केवलस्य काव्यत्वम्, नाप्यर्थस्येति' । तथा कुन्तक अपने इस मत को समर्थन देते हैं— भामह की प्रथम परिच्छेद की 'रूपकादिरलङ्कारस्तस्यान्यैर्बहुधोदितः । ...... शब्दाभिमालङ्कारभेदादिष्टं द्वयन्तु नः ॥ इत्यादि १३ वीं, १४ वीं और १५ वीं कारिका को उद्धृत करके । ( ब० जी० पृ० २३-२४ )