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वक्रोक्तिजीवितम्
तक उसने कारागार से मुक्त नहीं कर दिया तबतक ) धनुष की डोरी से बंधी होने के कारण स्पन्दरहित भुजाओं वाले, ( अत्यधिक कष्ट के कारण ) निःश्वास लेते हुए ( दसो ) मुखों की परम्परा वाले एवं इन्द्र को पराजित करने वाले रावण ने निवास किया था । ( ऐसे कार्तवीर्यं का यह वंशज है ) ॥ ८० ॥
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व्यपदेशप्रकारान्तरनिरपेक्षः कविशक्तिपरिणामः परं
परिपाकमधिरूढः ।
यहाँ ( इस श्लोक में ) दूसरे प्रकार के कथन की अपेक्षा न रखने वाला कवि की (सहज) प्रतिभा का परिणाम अत्यन्त ही परिपोष को प्राप्त हो गया है । अर्थात् कवि ने रावण के लिए जिन विशेषणों का प्रयोग किया है उन्हें अब किसी अन्य शब्द द्वारा व्यक्त किये जाने की अपेक्षा नहीं । तात्पर्य यह कि 'निर्जितवासवेन' अर्थात् जिसने इन्द्र को पराजित किया था उसी को कार्तवीर्य ने 'विनिःश्वसद्वक्त्रपरम्परेण' अर्थात् निःश्वास लेती हुई दशो मुखों की परम्परा वाला बना दिया है कहाँ देवराज इन्द्र को जीतने वाला रावण कहाँ, उसकी यह दशा कि वहाँ एक दो मुखों से नहीं बल्कि सभी मुखों से हॉफे वह भी किसी भारी कष्ट द्वारा पीड़ित किये जाने पर नहीं बल्कि एक मामूली धनुष की डोरी से बंधे जाने के कारण बीसों भुजाओं के स्पन्द से रहित 'ज्याबन्धनिष्पन्दभुजेन' । इस प्रकार यहाँ रावण के लिए प्रयुक्त सभी विशेषण किसी एक अपूर्व चमत्कार के जनक हैं उन्हें किसी अन्य व्यपदेश की आवश्यकता नहीं ) ।
एतस्मिन् कुलके - प्रथमश्लोके प्राधान्येन शब्दालंकरणयोः सौन्दर्य प्रतिपादितम् । द्वितीये वर्णनीयस्य वस्तुनः सौकुमार्यम् | तृतीये प्रकारान्तरनिरपेक्षस्य संनिवेशस्य सौकुमार्यम् । चतुर्थे वैचित्र्यमपि सौकुमार्याविसंवादि विधेयमित्युक्तम् । पश्चमो विषयविषयि सौकुमार्यप्रतिपादनपरः ।
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इस ( २५ से २६ कारिका वाले) कुलक में, प्रथम श्लोक ( २६वीं कारिका ) में मुख्यरूप से शब्द तथा अलङ्कारों के सौन्दर्य को प्रतिपादित किया गया है । दूसरे (श्लोक २६ वीं कारिका ) में वर्ण्य वस्तु की सुकुमारता ( का प्रतिपादन किया गया है ) । तीसरे ( श्लोक २७ वीं कारिका ) में प्रकारान्तर की अपेक्षा न रखने वाली संघटना की सुकुमारता ( प्रतिपादित की गई है ) चौथे (श्लोक २८ वीं कारिका ) में सुकुमारता के अनुरूप ही वैचित्र्य की सृष्टि करना चाहिए ऐसा कहा गया है। एवं पाचवाँ ( श्लोक