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प्रथमोन्मेषः
रञ्जकः सहृदयाह्लादकः । तेनायमर्थः - यदि तथाविधं कविकौशलमत्र संभवति तद् व्यपदेष्टुमियत्तया न कथंचिदपि पार्थते, केवलं सर्वातिशायितया चेतसि परिस्फुरति । यश्व कीदृशः - विधिवैदग्ध्यनिष्पन्ननिर्माणातिशयोपमः विधिर्विधाता तस्य वैदग्ध्यं कौशलं तेन निष्पन्नः परिसमाप्तो योऽसौ निर्माणातिशयः सुन्दरः सर्वोल्लेखो रमणीयर मणीलावण्यादिः स उपमा निदर्शनं यस्य स तथोक्तः तेन विधातुरिव कवेः कौशलं यत्र विवेक्तुमशक्यम् |
यथा
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और कैसा है ( सुकुमार मार्ग ) - अविभावित संस्थान की रमणीयता से आनन्ददायक । अविभावित अर्थात् अनालोचित है संस्थिति अर्थात् अवस्थान जिसमें ( अर्थात् जिसकी सत्ता को शब्दों द्वारा नहीं व्यक्त किया जा सकता अपितु जो केवल अनुभवगम्य होती है ) उस रामणीयक अर्थात् रमणीयता के द्वारा रञ्जक अर्थात् सहृदयों को आनन्दित करने वाला । इस प्रकार इसका अर्थ यह हुआ कि - यदि उस प्रकार का कविकौशल यहाँ ( काव्य में ) सम्भव होता है तो वह 'इतना ही है' इस प्रकार किसी भी तरह कहा नहीं जा सकता, वह केवल सबसे अतिशययुक्त रूप में हृदय में स्फुरित होता है ( अर्थात् उसे शब्दों द्वारा कहा नहीं जा सकता, उसका केवल अनुभव किया जा सकता 1 ) और जो ( सुकुमार मार्ग ) कैसा है कि विधि के वैदग्ध्य से निष्पन्न निर्माण के अतिशय के समान । विधि अर्थात् ब्रह्मा ( विधाता ), उनका ( जो ) वैदग्ध्य अर्थात् कौशल ( चातुर्य ), उसके द्वारा निष्पन्न अर्थात् अच्छी प्रकार समाप्त हुआ जो यह निर्माण का अतिशय अर्थात् सुन्दर सृष्टि की रचना, रमणी के रमणीय लावण्यादि वह है उपमा अर्थात् निदर्शन ( सदृश स्वरूप वाला ) जिसका वह हुआ उस प्रकार कहा गया ( अविभावित संस्थान युक्त रमणीयता से आह्लादकारी ) । इस प्रकार विधाता के ( कौशल ) की भाँति कवि के कौशल का विवेचन जहाँ नहीं किया जा सकता । ऐसा सुकुमार मार्ग होता है । जैसे
ज्याबन्धनिष्पन्दभुजेन यस्य विनिःश्वसद्वस्त्रपरंपरेण ।
कारागृहे निर्जितवासवेन दशाननेनोषितमा प्रसादात् ॥ ८० ॥
( यह रघुवंश महाकाव्य के छठवें सर्ग का ४० वाँ श्लोक हैं । इन्दुमती के स्वयंवर में प्रतीप नामक राजा का परिचय देती हुई सुनन्दा उसके पूर्वज कार्तवीर्य को वीरता का परिचय देती हुई कहती है) कि जिस ( कार्तवीर्य अर्जुन ) के कारागार में उसके प्रसादपर्यन्त ( अर्थात् स्वयं कृपा कर जब