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दोक्तिजीवितम्
उदाहरण रूप में रघुवंश ( महाकाव्य ) में रावण का वध कर पुष्पक विमान से आते हुए, एवं सीता से उन ( सीता ) के विरह के कारण व्याकुल हृदयवाले हमने इस स्थान पर इस प्रकार किसी कष्ट का अनुभव किया था, ऐसा ( अमुक अमुक स्थलों के विषय में ) वर्णन करते हुए राम के सभी वाक्य ( उद्धृत किये जा सकते हैं ) । जैसे
पूर्वानुभूतं स्मरता च रात्रौ कम्पोत्तरं भीरु तवोपगूढम् । गुहाविसारीण्यतिवाहितानि मया कथंचिद् घनगर्जितानि ॥ ७६ ॥
हे भयशीले ( सीते ! इस स्थान पर ) रात्रि में ( पहले बादलों के गरजने से डरी हुई ) काँपते हुए तुम्हारे आलिङ्गन का स्मरण करते हुए मैंने किसी प्रकार से ( बड़े कष्ट के साथ), गुफाओं के भीतर फैल जाने वाली बादलों की गड़गड़ाहट को सहन किया था ॥ ७६ ॥
अत्र राशिद्वयकरणस्यायमभिप्रायो यद् विभावादिरूपेण रसाङ्गभूताः शकुनिरुततरुसलिलकुसुमसमयप्रभृतयः पदार्थाः सातिशयस्वभाववर्णनप्राधान्येनैव रसाङ्गतां प्रतिपद्यन्ते । तद्वयतिरिक्ताः सुरगन्धर्वप्रभृतयः सोत्कर्षचेतनायोगिनः शृङ्गारादिरसनिर्भरतया वर्ण्यमानाः सरसहृदयाह्लादकारितामायातीति कविभिरभ्युपगतम् । तथाविधमेव लक्ष्ये दृश्यते ।
यहाँ पर जो ( पहला पशु पक्षियों के स्वभाव के प्राधान्य का वर्णनरूप, एवं दूसरा चेतन पदार्थों का रसपरिपूर्ण ढंग से वर्णनरूप ) दो विभाग किए गए हैं उसका यही अभिप्राय है कि रस के अङ्गभूत पक्षियों की ध्वनि, पेड़, जल; कुसुमों के समय आदि पदार्थ, अतिशय सम्पन्न अपने स्वभाववर्णन के मुख्यरूप से ही युक्त होकर विभावादि रूप से ( वर्णित किए जाने पर ) रसों के अङ्ग बनते हैं । ( जबकि ) उनसे भिन्न उत्कृष्ट चेतना से युक्त सुर, गन्धर्व आदि शृङ्गारादि रसों की परिपूर्णता के साथ ही वर्णित किए जाने पर सहृदयों के हृदयों को आनन्द प्रदान करते हैं, ऐसा ( भेद ) कवियों ने स्वीकार किया है और उसी प्रकार का वर्णन भी लक्ष्य ग्रन्थों के ( अर्थात् काव्यादिकों ) में प्राप्त भी होता है । ( इसीलिये पशु-पक्षियों के वर्णन के लिए - 'भावस्वभाव प्राधान्यन्यक्कृताहार्य कौशलः - विशेषण का प्रयोग कर, तथा सुरगन्धर्वादिकों के वर्णन के लिये - ' रसादिपरमार्थज्ञमनः - संवादसुन्दरः' विशेषण देकर दो भेद कर दिए हैं । )
अन्यच्च कीदृशः - अविभावितसंस्थानरामणीयकरञ्जकः । अविभावितमनालोचितं संस्थानं संस्थितिर्यत्र तेन रमणीयकेन रमणीयत्वेन