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प्रथमोन्मेषः
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अत्र च पूर्ववदेव क्रियावैचित्र्यप्रतीतिः । यथा चकण्णुप्पलदलमिलिअलोअणेहिं हेलालोलणमाणिअणअणेहिं । लीलइ लीलावईहि णिरुद्धओ सिढिलिअचाओ जअइ मअरद्धओ ।।६।। [कर्णोत्पलदलमिलितलोचनैर्हेलालोलनमानितनयनाभिः । लीलयालीलावतीभिर्निरुद्धः शिथिलीकृतचापो जयति मकरध्वजः ॥] ___ यहां पर भी पूर्व की भांति ही क्रियावैचित्र्य की प्रतीति होती है अर्थात् लोक में केवल काष्ठ आदि मूर्त वस्तुओं का ही अग्नि के द्वारा जलाया जाना प्रसिद्ध है लेकिन इस श्लोक-खण्ड में उससे भिन्न पाप रूप अमूर्त वस्तु की दहन रूप अपूर्व क्रिया का प्रतिपादन किये जाने के कारण यहाँ 'क्रियावैचित्र्य-वक्रता' है । और जैसे ( इसी का दूसरा उदाहरण )
क्रीडा (करने) के कारण चञ्चलता को प्राप्त नयनोंवाली विलासिनियों के द्वारा विलास के साथ कानों में लगे हुए कमलों के पत्तों से संयुक्त होते हुए नेत्रों द्वारा रोक दिया गया ( अतः ) अपने धनुष को शिथिल कर देनेवाला कामदेव सर्वातिशायी है ॥ ६१ ।।
अत्र लोचनैर्लीलया लीलावतीभिर्निरुद्धः स्वव्यापारपराङ्मुखीकृतः सन् शिथिलीकृतचापः कन्दर्पो जयति सर्वोत्कर्षेण वर्तत इति किमुच्यते, यतस्तास्तथाविघविजयावाप्तौ सत्यां जयन्तीति वक्तव्यम् ।
यहाँ क्रीडा करती हुई कामिनियों के द्वारा विलास के साथ नेत्रों द्वारा निरुद्ध किया गया अर्थात् अपने शर-सन्धान रूप व्यापार से पराङ्मुख किया गया अपने धनुष को शिथिल कर देनेवाला कामदेव 'जयति' अर्थात सर्वोत्कृष्ट रूप से विद्यमान है। यह क्या कहा जाता है अर्थात् यह कहना अनुचित है, क्योंकि कामदेव को अपने व्यापार से पराङ्मुख कर देने के कारण उस प्रकार कामदेव के ऊपर विजय को प्राप्त करने पर वे रमणियाँ ही सर्वोत्कृष्ट रूप से विद्यमान हैं यह कहना चाहिए न कि कामदेव ।
तदयमत्राभिप्रायः यत्तल्लोचनविलासानामेवंविधं जैत्रताप्रौढभावं पर्यालोच्य चेतनत्वेन स स्वचापारोपणायासमुपसंहृतवान् । यतस्तेनैव त्रिभुवनविजयावाप्तिः परिसमाप्यते । ममेति मन्यमानस्य तस्य सहायत्वोत्कर्षातिशयो जयतीति क्रियापदेन कर्तृतायाः कारणत्वेन कवेश्चेनसि परिस्फुरितः । तेन किमपि क्रियावैचित्र्यमत्र तद्विदाहाद-कारि प्रतीयते । यथा च