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वक्रोक्तिजीवितम् ___इस पद्य में साध्यभूत ( नेत्रों के ) स्थगन (बन्द करने के प्रयोजन के (शिव के तीनो नेत्रों में ) समान होने पर, तथा ( उन तीनों नेत्रों में ) नेत्रत्व के समान होने पर भी जिस ( तृतीय नेत्र) का निरोध देवी ( पार्वती) के परिचुम्बन द्वारा सम्पन्न किया गया है ( ऐसा ) वह भगवान् ( शङ्कर ) का तृतीय नेत्र ‘जयति' अर्थात् सबसे उत्कृष्ट ( नेत्र के ) रूप में विद्यमान है, यह इस श्लोक का तात्पर्यार्थ है । यहाँ पर 'जयति' इस क्रियापद का ( केवल ) सहृदयहृदयों द्वारा अनुभव किया जाने वाला कोई ( अनिर्वचनीय ) वैचित्र्य परिस्फुरित होता दिखाई पड़ता है। ( इस प्रकार यह 'क्रियावैचित्र्यवक्रता' का प्रथम उदाहरण प्रस्तुत किया गया )।
और जैसे ( दूसरा उदाहरण )स्वेच्छाकेसरिणः स्वच्छस्वच्छायायासितेन्दवः ।
त्रायन्तां वो मधुरिपोः प्रपन्नार्तिच्छिदो नखाः ।। ४६ ।। अपनी ही इच्छा से सिंह बने हुए ( अर्थात् हिरण्यकशिपु राक्षस का वध करने के लिए नृसिंह रूप में अवतरित हुए ) मधु के शत्रु ( भगवान् विष्णु के ), अपनी विमल कान्ति के द्वारा चन्द्रमा को भी कष्ट देने वाले ( अर्थात् चन्द्रमा जिसे कि अपनी कान्ति का गर्व है उसे उससे भी अधिक कान्तियुक्त होने के कारण कष्ट देने वाले ) एवम् ( अर्थात् शरण में आये हुए लोगों) की विपत्ति का विनाश करने वाले नाखून आप लोगों की रक्षा करें ॥ ५६ ॥ ___ अत्र नखानां सकललोकप्रसिद्धच्छेदनव्यापारव्यतिरेकि किमप्यपूर्वमेव प्रपन्नार्तिच्छेदनलक्षणं क्रियावैचित्र्यमुपनिबद्धम् | यथा च
स दहतु दुरितं शाम्भवो वः शराग्निः ।। ६० ॥ यहाँ ( इस पद्य में नृसिंह-रूपधारी भगवान् विष्णु के ) नाखूनों के समस्त लोकों में प्रसिद्ध छेदन व्यापार से भिन्न किसी अपूर्व ही शरण में आए हुए लोगों की विपत्ति के छेदन रूप क्रिया-चैचित्र्य को कवि ने उपनिबद्ध किया है ( अर्यात् लोक में काष्ठ आदि को छेदन रूप क्रिया ही पायी जाती है, किन्तु यहाँ पर कवि ने अपूर्व विपत्ति की छेदन रूप क्रिया का वर्णन किया है जो कि अतिशय चमत्कार-पूर्ण होने के कारण 'क्रियावैचित्र्यवक्रता' को धारण करती है ) । और जैसे ( इसी का तीसरा उदाहरण )
भगवान् षङ्कर की वह (विशिष्ट) शराग्नि मापके पाप को जला दे ॥६॥