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प्रथमोन्मेषः
'तटी' शब्द का ही प्रयोग किया है। अतः यहाँ लिङ्गवैचित्र्यवक्रता ही सहृदयहृदयाह्लादकारिणी है । ) ... ( इस प्रकार अभी तक ‘पदपूर्टिवक्रता' के अन्तर्गत 'प्रातिपदिक' की वक्रता के मुख्य रूप से आठ अवान्तर भेदों का प्रतिपादन कर अब 'धातु' की वक्रता के अवान्तर भेदों का प्रतिपादन किया जा रहा है जैसा पहले ही बताया गया है कि सुबन्त पदों का पूर्वार्द्ध 'प्रातिपदिक' तथा तिङन्त पदों का पूर्वार्द्ध 'धातु' कहा जाता है तो)
पदपूर्वार्धस्य धातोः क्रियार्थवैचित्र्यवक्रत्वं नाम वक्रत्वप्रकारान्तरं विद्यते यत्र क्रियावैचित्र्यप्रतिपादनपरत्वेन वैदग्ध्यभङ्गीणितिरमणीयान् प्रयोगान् निबध्नन्ति कवयः । तत्र क्रियावैचित्र्यं बहुविधं विच्छित्तिविततव्यवहारं दृश्यते । यथा
(तिङन्त ) पदों के पूर्वार्द्ध धातु की 'क्रियावैचित्र्यवक्रता' नामक (पदपूर्वार्द्ध) वक्रता का अन्य ( नवम ) भेद (भी) है। जहां क्रिया की विचित्रता ( चमत्कारजनकता ) का प्रतिपादन करने के लिए ( कुशल ) कविगण चातुर्यपूर्ण ( कविकोशल की ) विच्छित्ति द्वारा कथन ( अर्थात् वक्रोक्ति ) से रमणीय ( क्रिया पदों के ) प्रयोगों की रचना करते हैं ( वहाँ 'क्रियावैचित्र्यवक्रता' होती है । ) जैसे
रइकेलिहिअणिअंसणकरकिसलअरुद्धणअणजुअलस्स | रुहस्स तइअणअणं पव्वइपरिचम्बिअं जअइ ।। ५८॥ [रतिकेलितनिवसनकरकिसलयरुद्धनयनयुगलस्य ।
रुद्रस्य तृतीयनयनं पार्वतीपरिचुम्बितं जयति ॥] रतिक्रीडा करते समय वस्त्रहीन ( नग्न ) हो जाने के कारण (पार्वती के ) कर-किसलयों द्वारा बन्द किए गये दोनों नेत्रों वाले भगवान शंकर का, पार्वती के द्वारा चूमा गया तीसरा ( भाल का ) नेत्र (जिसे पार्वती ने अपने चुम्बन से बन्द कर दिया है वह ) सर्वोत्कृष्ट रूप में विद्यमान है ॥ ५८ ॥
अत्र समानेऽपि हि स्थगनप्रयोजने साध्ये तुल्ये च लोचनत्वे, देव्याः परिचुम्बनेन यस्य निरोधः सम्पाद्यते तद्भगवतस्तृतीयं नयनं जयति सर्वोत्कर्षेण वर्तत इति वाक्यार्थः। अत्र जयतीति क्रियापदस्य किमपि सहृदयहृदयसंवेद्यं वैचित्र्यं परिस्फुरदेव लक्ष्यते । यथा