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वक्रोक्तिजीवितम्
( ऐसा सोचकर पास आये हुए भौंरे को जिसने पीड़ित कर दिया वह मातङ्ग (चाण्डाल अथवा हांथी ) ही है, इससे अधिक उसे और क्या कहा जा सकता है। इस प्रकार इस पद्य में यद्यपि 'बृहत्प्रमाणकर्णः करी' के साथ, ( जो कि पुंल्लिङ्ग है ) सामानाधिकरण्य पुंल्लिङ्ग शब्द के साथ ही होना सम्भव था, किन्तु कुशल कवि ने पुंल्लिङ्ग शब्द का प्रयोग न कर सामानाधिकरण्य से नपुंसकलिङ्ग ध्वनितस्य पात्रम्' शब्द का प्रयोग कर सहृदयों के लिए एक विशेष प्रकार के चमत्कार की सृष्टि की है। अतः यहाँ 'लिङ्गवैचित्र्य वक्रता' स्वीकार की जायगी । ) यथा च
मैथिली तस्य दाराः ।। इति ।। ५६ ॥ और जैसे ( इसी का दूसरा उदाहरण )मिथिलेशकुमारी जानकी उसकी भार्या है ॥ ५६ ।।
( यहाँ 'मैथिली' शब्द के साथ सामानाधिकरण्य स्त्रीलिङ्ग शब्दों का ही सम्भव था, किन्तु कवि ने अपने कौशल से पुंल्लिङ्ग दारा शब्द का सामानाधिकरण्य से प्रयोग किया है, जो किसी अलौकिक चमत्कार का विधायक है अतः यह भी 'लिङ्गवैचित्र्य वक्रता' का ही उदाहरण हुआ )। ___ अन्यदपि लिङ्गवैचित्र्यवक्रत्वम्-यत्रानेकलिङ्गसम्भवेऽपि सौकुमार्यात् कविभिः स्त्रीलिङ्गमेव प्रयुज्यते, 'नामैव स्त्रीति पेशलम्' ( २।२२) इति कृत्वा । यथा
'लिङ्गवैचित्र्यवक्रता' का दूसरा भेद भी सम्भव हो सकता है । जहाँ ( किसी शब्द में ) विभिन्न लिङ्गों की सम्भावना रहने पर भी ( कुशल ) कवि लोग सुकुमारता के कारण स्त्रीलिङ्ग को ही 'स्त्री इस प्रकार का कथन ही हृदयहारि होता है' (२।२२) ऐसा स्वीकार कर, प्रयुक्त करते हैं ( वहाँ भी लिङ्गवैचित्र्यवक्रता होती है ) । जैसे
एतां पश्य पुरस्तटीम् इति ।। ५७ ॥ सामने स्थित इस किनारे को देखो ॥ ५७ ॥
( यहाँ यद्यपि किनारे के वाचक तट शब्द का ( तटः, तटी, तटम् ) पुल्लिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग एवं नपुंसक लिङ्ग तीनों लिङ्गों में प्रयोग किया जा सकता था, परन्तु कवि ने केवल सुकुमारता को धोतित करने के लिए यहाँ स्त्रीलिङ्ग