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वक्रोक्तिजीवितम् __ तो यहाँ पर ( इसका ) अभिप्राय यह है कि-उन ( कामिनियों के नेत्र-विलासों के इस प्रकार विजयी होने में प्रौढ-भार का विवेचन कर चेतन होने के कारण उस ( कामदेव ) ने अपने धनुष चढ़ाने के प्रयास को रोक दिया, क्योंकि उसी ( कामिनियों के नेत्र-विलासों की विजयशीलता ) से ही तीनों लोकों की विजय की प्राप्ति मुझे हो जाती है, ऐसा समझते हुए उस ( कामदेव ) का सहायता के उत्कर्ष का अतिशय 'जयति' इस क्रियापद के द्वारा कर्तृता के कारण रूप में कवि के हृदय में परिस्फुरित हुआ । अतः यहाँ पर सहृदयों को आनन्दित करने वाला कोई क्रियावैचित्र्य दृष्टिपथ में आता है । और जैसे ( अन्य उदाहरण )
तान्यक्षराणि हृदये किमपि धनन्ति ।। ६२ ॥ ( यह पद्य अपने पूर्ण रूप में इसी उन्मेष के ५१ वें उदाहरण में उद्धृत हो चुका है। अतः उसे वहीं देखें।-मद के कारण अलसाई हुई मेरी सुन्दरी प्रियतमा के अनुभवकगम्य ) वे अक्षर ( जो कि न सार्थक ही थे और न निरर्थक ही ये ) हृदय में कुछ ( अनिर्वचनीय ही अस्पष्ट सी) ध्वनि उत्पन्न करते हैं ॥ ६२ ॥
अत्र जल्पन्ति वदन्तीत्यादि न प्रयुक्तम् , यस्मात्तानि कयापि विच्छित्त्या किमप्यनाख्येयं समर्पयन्तीति कवेरभिप्रेतम् ।
यहाँ पर (कवि ने) 'जल्पन्ति' ( कहते हैं ) तथा 'वदन्ति' ( बोलते हैं ) इत्यादि शब्दों का प्रयोग नहीं किया क्योंकि वे ( अक्षर ) किसी (अपूर्व ही) वैचित्र्य के साथ अनिर्वचनीय ( अनुभकवैगम्य आनन्द ) को प्रदान करते हैं। किसी ( अर्थात् यदि 'जल्पन्ति' आदि के द्वारा कहा जाता है तो उसके स्पष्ट ढंग से उच्चरित होने के कारण केवल अनुभवैकगम्यता समाप्त हो जाती, और इस प्रकार उन अक्षरों के कथन को वाणी द्वारा व्यक्त किया जा सकता था। पर उससे वाक्य में ऐसा चमत्कार न आ पाता। इसीलिए कवि ने यहां 'ध्वनन्ति' शब्द का प्रयोग किया है अर्थात् वे कुछ स्पष्ट बोलते नहीं अपितु अस्पष्ट सी अनिर्वचनीय अनुभवकगम्य ध्वनि करते हैं, जिसके द्वारा वाक्य में एक अपूर्व चमत्कार आ गया है, अतः यह क्रियावैचित्र्य वक्रता का उदाहरण हुआ)।
वक्रतायाः परोऽप्यस्ति प्रकारः प्रत्ययाश्रय इति । वक्रमावस्यान्योऽपि प्रभेदो विद्यते । कीदृशः-प्रत्ययाश्रयः। प्रत्ययः सुप्ति