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वक्रोक्तिजीवितम्
(इस श्लोक में 'चकितहरिणीहारि' यह क्रियाविशेषण गुरुजनों के समीप स्थित मेरी प्रियतमा द्वारा किये गये अत्यन्त भोलेपन के कारण रमणीय कटाक्ष के प्रहार की किसी अपूर्व रमणीयता को धारण करता है, चकित हरिणी के नेत्रों के सदृश मनोहर नेत्रों के साम्य के द्वारा। इस प्रकार यह 'विशेषणवक्रता' का दूसरा उदाहरण प्रस्तुत किया गया । अब आगे 'पदपूर्वार्द्धवक्रता' के छठे भेद 'संवृतिवक्रता' को प्रस्तुत करते हैं )
अयमपरः पदपूर्वार्धवक्रतायाः प्रकारो यदिदं संवृतिवक्रत्वं नामयत्र पदार्थस्वरूपं प्रस्तावानुगुण्येन केनापि निकःणोत्कर्षेण वा युक्तं व्यक्ततया साक्षादभिधातुमशक्यं संवृतिसामोपयोगिना शब्देनामिधीयते । यथा
यह पदपूर्वार्द्धवक्रता का अन्य छठा भेद है जिसे 'संवृतिवक्रता' कहते हैं। जहां पर प्रकरण के अनुकूल किसी न्यूनता अथवा आधिक्य से युक्त एवं व्यक्त रूप से साक्षात् कहने के लिए अनुपयुक्त पदार्थ के स्वरूप को संवरण कर लेने की सामथ्र्य के कारण उपयोगी शब्द के द्वारा कहा जाता है ( वहाँ 'संवृतिवक्रता' होती है ) । जैसे
सोऽयं दम्भधृतवतः प्रियतमे कतुं किमप्युद्यतः ।। ५० ।। (प्रस्तुत पद्य 'तापसवत्सराजचरित' नामक नाटक से उधत किया गया है। यह सम्पूर्ण श्लोक आये चतुर्थ उन्मेष के १८ वें उदाहरण में उद्धृत है । इसके प्रथम तीन चरण इस प्रकार हैं
चतुर्थस्य तवाननादपगतं नाभत क्वचिनिर्वतं येनषा सततं त्वदेकशयनं वक्षःस्थली कल्पिता ।
येनोद्भासितया विना बत जगच्छून्यं क्षणाज्जायते अर्थात् इस पद्य में राजा उदयन के पद्मावती के माथ विवाह करते समय उत्पन्न शोक का वर्णन किया गया है कि-जिसके नेत्रों को तुम्हारे मुख पर से हटने पर अन्यत्र कहीं सुख नहीं मिला, जिसने अपनी वक्षःस्थली को केवल तुम्हारे ही शयन के लिए कल्पित किया तथा जिसकी उपस्थिति के बिना तुम्हारे लिए सारा संसार जीर्ण वन के समान हो जाता था ।
हे प्रियतमे ! वही यह दम्भ से ( एकपत्नीत्व ) व्रत को धारण करने वाला ( तुम्हारा प्रियतम उदयन ) आज कुछ ( निकृष्ट कार्य अर्थात् पद्मावती को पत्नी रूप में स्वीकार ) करने के लिए उद्यत हो गया है ॥ ५० ॥