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प्रथमोन्मेषः अत्र दाहो बाष्पः श्वासा वपुरिति न किञ्चिद्वैचित्र्यमुन्मीलितम् । प्रत्येक विशेषणमाहात्म्यात्पुनः काचिदेव वक्रताप्रतीतिः । यथा च
ब्रीडायोगानतवदनया सन्निधाने गुरुणां बद्धोत्कम्पस्तनकलशया मन्युमन्तनियम्य तिष्ठेत्युक्तं किमिव न तया यत्समुत्सृज्य बाष्पं
मय्यासक्तश्चकितहरिणीहारिनेत्रात्रिभागः ।। ४६ ।। (विरह की ) ऊष्मा जल के प्रसार को खोला देने वाली है, ( जिससे कि ) बाष्प अत्यधिक इकट्ठा होकर परनालों के द्वारा निकालने योग्य हो गया है, ( लम्बी ) साँसे जलते हुए दीये की लपटों को हिला देनेवाली हैं, सारा शरीर पीतिमा में डूब गया है, और क्या कहें, सारी की सारी रात वह तुम्हारे रास्ते के झरोखे पर हथेली की ओट से चांदनी को रोककर काट रही है ॥ ४० ॥
अत्र चकितहरिणीहारीति क्रियाविशेषण नेत्रत्रिभागासङ्गस्य गुरुसन्निधानविहिताप्रगल्भत्वरमणीयस्य कामपि कमनीवतामावहति चकितहरिणीहारिविलोचनसाम्येन ।
इस पद्य में प्रयुक्त दाह, बाष्प, श्वास तथा वपु शब्दों के द्वारा किसी भी प्रकार की विचित्रता उन्मीलित नहीं हुई, अपितु प्रत्येक शब्द के साथ प्रयुक्त विशेषणों के माहात्म्य के द्वारा ( अर्थात् 'दाह' के साथ 'प्रसूतिम्पचः' 'बाष्प' के साथ 'प्रणालोचितः', 'श्वासाः' के साथ 'प्रेसितदीप्रदीपलतिकाः' तथा 'वपु' के साथ प्रयुक्त 'पाण्डिम्नि मग्नम्' विशेषणों के माहात्म्य से) किसी अनिर्वचनीय वक्रता ( अर्थात् सहृदयम् हृदयाह्लादकारिता ) का आभास होता है।
और जैसे ( इसी का दूसरा उदाहरण कोई प्रवासी युवक अपने किसी मित्र से कह रहा हैं कि जब मैं परदेश जाने लगा तो ) गुरुजनों के समीप में (स्थित होने के कारण ) लज्जा से मुख को झुकाये हुए तथा कम्पित होते हुए स्तनरूप कलशों वाली, उस (मेरी प्रियतमा) ने ( मेरे परदेश जाने के कारण उत्पन्न विरह के ) शोक को हृदय में ही दबाकर तथा आँसू बहाते हुए चकितहरिणी के नेत्रों के सदश मनोहर नेत्रों के कटाक्ष को मेरी ओर फेंका ( उसके द्वारा) क्या ( उसने सुझे ) रुको ( मत जाओ) ऐसा नहीं कहा, ( अर्थात् अवश्य कहा है )।