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________________ प्रथमोन्मेषः अत्र वत्सराजो वासवदत्ता विपत्तिविधुर हृदयस्तत्प्राप्तिप्रलोभनवशेन पद्मावत परिणेतुमीहमानस्तदेवा करणीयमित्यवगच्छन् तस्य वस्तुनो महापातकस्येवाकीर्तनीयतां ख्यापयति किमपीत्यनेन संवरणसमर्थेन सर्वनामपदेन । यथा च ७३ यहाँ वासवदत्ता ( के आग में जलकर भस्म हो जाने ) की विपत्ति (को सुनने ) से दुःखी चित्तवाले वत्सनरेश उदयन उस ( वासवदत्ता ) की प्राप्ति के प्रलोभन में पड़कर पद्मावती के परिणय की इच्छा रखते हुए उसी (पद्मावती - परिणय ) को अकरणीय समझते हुए, उस वस्तु ( पद्मावतीविवाह ) की बड़े भारी पाप के समान निन्दनीयता का संवरण कर लेने में समर्थ सर्वनाम पद 'किमपि' के द्वारा विज्ञापन करते हैं । ( अर्थात् मैं पद्मावती के साथ परिणय रूप एक महापातक के सदृश निन्दनीय कर्म को करने के लिए उद्यत हो गया हूँ, इस बात को यदि इसी ढंग से कहते तो वह ग्राम्य एवं अनुचित होती अतः इस बात को छिपा सकने में समर्थ 'किमपि' पद का प्रयोग किया गया, जिसके द्वारा ये सभी बातें साफ व्यञ्जित हो जाती हैं । इस प्रकार कवि का कौशल यहाँ अकथनीय ( निकृष्ट ) बात को छिपाते हुए उसे सभ्य ढंग से सहृदयों के सम्मुख प्रस्तुत कर देने में निहित है । इसलिए यहाँ 'संवृतिवक्रता ' है ) । और जैसे ( दूसरा उदाहरण ) - निद्रानिमीलितदृशो मदमन्थराया नाप्यर्थवन्ति न च यानि निरर्थकानि । अद्यापि मे वरतनोर्मधुराणि तस्यास्तान्यक्षाणि हृदये किमपि ध्वनन्ति ।। ५१ ।। नींद के कारण आँखों को बन्द किए हुए एवम् मद के कारण अलसायी हुई ( सुस्त पड़ी हुई ) उस सुन्दर शरीर वाली ( मेरी प्रियतमा ) के वे मधुर अक्षर आज भी हृदय में कुछ ( अनिर्वचनीय आनन्द को ) ध्वनित करते हैं जो न तो अथं से ही युक्त थे और न निरर्थक ही थे ।। ५१ ।। अत्र किमपीति तदाकर्णन विहितायाश्चित्तचमत्कृतेरनुभवैकगोचरत्वलक्षणमव्यपदेश्यत्वं प्रतिपाद्यते । तानीति तथाविधानुभवविशिष्टतया स्मर्यमाणानि | नाप्यर्थवन्तीति स्वसंवेद्यत्वेन व्यपदेशाविषयत्वं प्रकाश्यते । तेषां च न च यानि निरर्थकानीत्यलौकिक चमत्कार कारित्वादपार्थकत्वं निवार्यते । त्रिष्वप्येतेषु विशेषणत्रक्रत्वं प्रतीयते ।
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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